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रविवार, 3 जुलाई 2011
"मिट गया है वजूद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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तब मिटेगी गरीबी?
जवाब देंहटाएंजी नहीं
मिट जाएँगे गरीब
ठीक बैसे ही
जैसे चवन्नी का
मिट गया है वजूद
वाह जी बहुत खूब ...
चव्वनी के जाने से कई परेशानियां खड़ी कर दी हैं... मसलन ...
जवाब देंहटाएं१. हम सवा रूपया का प्रशाद नही चढ़ा सकते ....
२.हम किसी को सवा ग्यारह का सगुन नही दे सकते ... ३.अब हम किसी को 'चव्वनी-छाप' नही कह सकते..
क्योकि आने वाली पीढ़ी को पता ही नही चलेगा की 'चव्वनी' कहते किसे थे ...हा हा हा
बहुत खूब ... !!
जवाब देंहटाएंवो दिन दूर नहीं
जवाब देंहटाएंजब आयेगा
दस हजार का नोट
और करेगा
अर्थव्यवस्था पर चोट
--
तब मिटेगी गरीबी?
जी नहीं
मिट जाएँगे गरीब
ठीक बैसे ही
जैसे चवन्नी का
मिट गया है वजूद
शास्त्री जी! हम कितना भी शोर करें पर हम जानते हैं और हमें मान भी लेना चाहिए कि यही कुदरत का नियम हैं हर छोटा बड़ों का ग्रास बनता है। बुद्धि-बल ज़ुरूर प्रभावी होता है पर जहाँ ज़रा भी चूक हुई कि गई भैंस पानी में कोशिश होनी चाहिए कि चूक न हो
badon ko shayad pata hi nahi hai ki unka vajood hi choton se bana hai.bahut achcha likha hai Shastri ji.
जवाब देंहटाएंचवन्नी के माध्यम से व्यवस्था पर गहरी चोट .
जवाब देंहटाएंनोटों ने हमेशा
जवाब देंहटाएंसिक्कों को कुचलना है
बड़ों को पनपना है
छोटों को मिटना है
lekin kranti ki chingari bhi aise me hi bhadak uthhti hai .achchhi kavita .aabhar
बड़ों को पनपना है |
जवाब देंहटाएंछोटों को मिटना है ||
बहुत-सुन्दर
शास्त्री जी बधाई ||
रुपया सोच रहा है
जवाब देंहटाएंमेरा भी अन्जाम
यही होगा एक दिन
sahi kaha hai aapne kyonki ye hi to ho raha hai aur athanni ka kya vo bhi lagbhag bazar se out ho chuki hai keval mandir me chadhaye jane ke liye rakhi hai.sundar bhavabhivyakti.
तब मिटेगी गरीबी?
जवाब देंहटाएंजी नहीं
मिट जाएँगे गरीब
ठीक बैसे ही
जैसे चवन्नी का
मिट गया है वजूद
बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाति है ..सही कहा है
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (4-7-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
गेहूं के साथ घुन को भी पिसना है ,सब आंकड़ों की बाजीगरी है शाष्त्री जी -एक बाज़ीगर रोज़ -बा -रोज दिखा रहा खेल ,आंकड़े बे -मेल ,गरीबों को दिखा रहा है ,गरीबी रेखा को घटा रहा है .अच्छी कविता चवन्नी से कोंग्रेस के आम -आदमी तक सब यकसां हैं कहीं कोई वजूद नहीं .
जवाब देंहटाएंन रही चवन्नी कुछ खोने का सा अहसास है
जवाब देंहटाएंdr.saheb,sateek,samayik rachana
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..
जवाब देंहटाएंरुपये की भभक में चवन्नी को सबक।
जवाब देंहटाएंतब मिटेगी गरीबी?
जवाब देंहटाएंजी नहीं
मिट जाएँगे गरीब
ठीक बैसे ही
जैसे चवन्नी का
मिट गया है वजूद
सटीक....
बहुत अच्छी रचना है.
जवाब देंहटाएंgood poetry!
जवाब देंहटाएंछोटे सिक्के गायब होंगे और बड़े नोट सिक्कों में ढलने लगेंगे ...
जवाब देंहटाएंरोचक प्रविष्टि !
mere khayaal se to ab athanni bhee nahee chaltee!
जवाब देंहटाएंअब छोटे सिक्कों का ज़माना गया! बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने!
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ।
जवाब देंहटाएंचवन्नी के माध्यम से व्यवस्था पर गहरी चोट .
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!