सुख में मुस्काता-दुख में आहत होकर रोता है पत्थर के तन में भी कोमल-कोमल मन होता है मन के उपवन में सजती है अरमानों की डोली केशर की क्यारी में फिर क्यों काँटों को बोता है लुढ़क-लुढ़क कर पर्वत से जो आया मैदानों में सरिता की निर्मल धारा में वो ही तन धोता है श्रम करके कठोर शय्या पर निद्रा सुख से आती नर्म सेज पर धनिक चैन की नींद नहीं सोता है विपदाओं की ज्वाला में तपकर ही स्वर्ण चमकता है खोट आग में जलकर अपनी चमक-दमक खोता है “रूप” और लावण्य लुभाता उसका ही दुनिया को जो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है |
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सोमवार, 4 जुलाई 2011
"कोमल मन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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पत्थर के तन में भी कोमल-कोमल मन होता
जवाब देंहटाएंकेशर की क्यारी में फिर क्यों काँटों को बोता
बहुत-बहुत बधाई शास्त्री जी ||
सुन्दर -रचना ||
सुख में मुस्काता-दुख में आहत होकर रोता है
जवाब देंहटाएंपत्थर के तन में भी कोमल-कोमल मन होता है
वाह गज़ब की प्रस्तुति……………बहुत सुन्दर संदेश दे रही है…………शानदार्।
विपदाओं की ज्वाला में तपकर ही स्वर्ण चमकता है
जवाब देंहटाएंखोट आग में जलकर अपनी चमक-दमक खोता है
“रूप” और लावण्य लुभाता उसका ही दुनिया को
जो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है
बहुत खूब कहा है ।
“रूप” और लावण्य लुभाता उसका ही दुनिया को
जवाब देंहटाएंजो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है
bahut sundar pangti.......
पत्थर के तन में……………………… सुन्दर्।
जवाब देंहटाएंवाह .. नमस्कार शास्त्री जी ... आपकी कलम ने तो पत्थर मैं भी जान डाल दी है ...
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब ...
हाय हाय ,
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी , क्या बात कही है आपने।
एक आप हैं कि आपको पत्थर के अंदर भी कोमल मन नज़र आ गया है और ज़माने में ऐसे लोग भी हैं कि मोम को भी पत्थर होने का ताना देते हैं।
देखिए
आरज़ू ए सहर का पैकर हूँ
शाम ए ग़म का उदास मंज़र हूँ
मोम का सा मिज़ाज है मेरा
मुझ पे इल्ज़ाम है कि पत्थर हूँ
श्रम करके कठोर शय्या पर निद्रा सुख से आती
जवाब देंहटाएंनर्म सेज पर धनिक चैन की नींद नहीं सोता है
ye to aapne sach hi kah dala shastri ji.aabhar.
बहुत ही सुंदर , कोमल रचना ।
जवाब देंहटाएंश्रम करके कठोर शय्या पर निद्रा सुख से आती
जवाब देंहटाएंनर्म सेज पर धनिक चैन की नींद नहीं सोता है
बहुत खूब
मानवता का संदेश देती सार्थक कविता।
जवाब देंहटाएंश्रम करके कठोर शय्या पर निद्रा सुख से आती
जवाब देंहटाएंनर्म सेज पर धनिक चैन की नींद नहीं सोता है
आप पत्थर में कोमल मन की बात कह रहे हैं और ज़माना लोगों को ही पत्थर मन कह देता है ... सुन्दर प्रस्तुति
sarthak sandesh preshit karti sundar rachna.aabhar
जवाब देंहटाएंpatthar ke tan me bhii komal man hota hai[....]
जवाब देंहटाएंsatiik.
वाह वाह मानव बन मानवता को ढोना क्या श्ब्द क्या भाव निकल आया है लाजवाब कुछ पंक्तिया कविता पर ही काबिज हो जाती हैं
जवाब देंहटाएंनर्म सेज पर धनिक - सही लिखा है शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंविपदाओं की ज्वाला में तपकर ही स्वर्ण चमकता है
जवाब देंहटाएंखोट आग में जलकर अपनी चमक-दमक खोता है
बहुत बढ़िया लगी रचना....
पत्थर को भी शब्दों की भाषा में ढाल दिया आपने ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएं“रूप” और लावण्य लुभाता उसका ही दुनिया को
जवाब देंहटाएंजो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है
bahut sunder,sarthak ..rachna ...
रूप” और लावण्य लुभाता उसका ही दुनिया को
जवाब देंहटाएंजो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है...
मानवता ही मन मोहती है बाकी सब माया !
विपदाओं की ज्वाला में तपकर ही स्वर्ण चमकता है
जवाब देंहटाएंखोट आग में जलकर अपनी चमक-दमक खोता है
kya baat hai shastriji.yathart main doobi saarthak rachanaa.bahut khoob.badhaai sweekaren.
बेहतरीन लिखा है सर!
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर सन्देश देती हुई ज़बरदस्त रचना! बेहतरीन प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंजो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है....
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा शिक्षा, शानदार ग़ज़ल सर,
सादर...
"विपदाओं की ज्वाला में तप कर
जवाब देंहटाएंही स्वर्ण चमकता है "
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
आशा
अति सुंदर रचना.मानस पटल पर प्रभाव छोड़ने वाली अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआनन्द विश्वास
विपदाओं की ज्वाला में तपकर ही स्वर्ण चमकता है
जवाब देंहटाएंखोट आग में जलकर अपनी चमक-दमक खोता है
सुन्दर प्रस्तुति....साधुवाद.
komal bhaavo se saji sunder prastuti...hamesha ki tarah.
जवाब देंहटाएं“रूप” और लावण्य लुभाता उसका ही दुनिया को
जवाब देंहटाएंजो मानव मानव बनकर मानवता को ढोता है...
बहुत ही सुन्दर मानवता के भावों को प्रसारित करने का उद्घोष करती मोहक रचना....!!!
बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता दिवस की शुभ कामनाएँ।
जवाब देंहटाएंकल 16/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!