चौकीदारी मिली खेत
की, अन्धे-गूँगे-बहरों को।
चोटी पर बैठे मचान
की, लगा रहे हैं पहरों को।।
घात लगाकर मित्र-पड़ोसी,
धरा हमारी लील रहे,
पर बापू के मौन-मनस्वी, देते उनको ढील रहे,
बोल न पाये, ना सुन
पाये, ना पढ़ पाये चेहरों को।।
चोटी पर बैठे मचान
की, लगा रहे हैं पहरों को।।
कैसे भरे तिजोरी
अपनी, दिवस-रैन ये सोच रहे,
अपने पैने नाखूनों
से, सुमनों को ये नोच रहे,
गाँवों को वीरान
बनाकर, रौशन करते शहरों को।
चोटी पर बैठे मचान
की, लगा रहे हैं पहरों को।।
चीर पर्वतों की
छाती को, बहती चंचल धारा है,
गहरी नदिया दूर
किनारा, कोई नहीं सहारा है,
चप्पू लेकर दूर
खड़े ये, चले थामने लहरों को।
चोटी पर बैठे मचान
की, लगा रहे हैं पहरों को।।
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शुक्रवार, 23 अगस्त 2013
"चले थामने लहरों को" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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Lazabab Sir Ji, Lazabaab !!
जवाब देंहटाएंवाह गुरूदेव! बहुत ही सुन्दर! वर्तमान परिस्थितियों का कितना सुन्दर चित्र खींचा है आपने! आपको नमन!
जवाब देंहटाएंचप्पू लेकर दूर खड़े ये, चले थामने लहरों को।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!
बहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंविषम परिस्थितियाँ हैं, सटीक चित्र खींचा है.
जवाब देंहटाएंसटीक रचना :-)
जवाब देंहटाएंजोश बढ़ाती पंक्तियाँ..
जवाब देंहटाएंकल 26/08/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बहुत प्रभावशाली और सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंआदरणीय अपकी यह प्रभावशाली प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' में संकलित की गयी है।
जवाब देंहटाएंकृपया http://nirjhar.times.blogspot.in पर पधारें,आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत खूब ,
जवाब देंहटाएं