अंग्रेजी भाषा के हम तो, खाने लगे निवाले हैं
खान-पान-परिधान विदेशी, फिर भी हिन्दी वाले हैं
अपनी गठरी कभी न खोली, उनके थाल खँगाल रहे
अपनी माता को दुत्कारा, उनकी माता पाल रहे
कुछ काले अंग्रेज, देश के बने हुए रखवाले हैं
वसुन्धरा-वन-खनिज और गो-गंगा को भी लील रहे
कृत्रिम मँहगाई फैलाकर, जनता का तन छील रहे
खादी की केंचुलिया पहने, डसते विषधर काले हैं
इनकी कारा में भारत माँ, रोती और बिलखती है
डरी और सहमी हिन्दी, कोने में पड़ी सिसकती है
हिन्दी को अपनी बिन्दी के, पड़े हुए अब लाले हैं
गाँधी तेरे बन्दर अब भी, अन्धे-गूँगे-बहरे हैं
दूध-दही की रखवाली पर, बिल्लो के अब पहरे हैं
मत पाकर धनवान बने, अब सियासती मतवाले हैं
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मंगलवार, 10 सितंबर 2013
"हिन्दी वाले हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंनमस्कार ...
जन जन के मन की बात लिख दी आदरणीय बहुत सही लिखा हार्दिक बधाई आपको
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन और सटीक प्रस्तुति,आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और सार्थक .....वर्तमान परिदृश्य का सत्य उजागर करती रचना ,महोदय...
जवाब देंहटाएंसाभार......
बहुत सुंदर सटीक सार्थक अभिव्यक्ति,,
जवाब देंहटाएंगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाए !
RECENT POST : समझ में आया बापू .
सार्थक और सटीक बेहद गंभीर भी
जवाब देंहटाएंमार्मिक सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंlatest post: यादें
बेहद सटीक...!!
जवाब देंहटाएंअपनी गठरी कभी न खोली, उनके थाल खँगाल रहे.....क्या बात है शास्त्रीजी, अति-सुन्दर व्यंजना ...
जवाब देंहटाएंओए-होए ....एक दम सच लिख दिया है जी आपने
जवाब देंहटाएंसच ही है..
जवाब देंहटाएं