हँसी भी है-खुशी भी है, तमन्नाओं की लहरे हैं
तभी नमकीन पानी में, बहुत से लोग ठहरे हैं
उमड़ती भावनाएँ जब, तभी तो ज्वार आता है
समन्दर की तलहटी में, पड़े माणिक सुनहरे हैं
कई सदियों से डूबी हैं, यहाँ गुस्ताख़ चट्टानें,
अभी इन कन्दराओं में, बसे असुरों के चेहरे हैं
मधुर जल से तुम्हें भरती, हमेशा पावनी गंगा
हुआ फिर नीर क्यों खारा, लगे क्यों आज पहरे हैं
बड़ी हसरत थी कोई तो, जुबां अपनी हिलायेगा
मगर इस जग के बाशिन्दे, तो गूँगे और बहरे हैं
लरजता “रूप” सरिता का, हुआ खामोश है अब तो
दिये हैं घाव जो दिल में, समन्दर से भी गहरे हैं
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गुरुवार, 12 सितंबर 2013
"ग़ज़ल-तमन्नाओं की लहरे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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कभी थे भाव उथले, किन्तु अब गम्भीर-गहरे हैं
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा !
भाव गहराने लगे हैं।
जवाब देंहटाएंक्या बात!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया -
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-
सुंदर सृजन ! बेहतरीन प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : बिखरे स्वर.
अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बड़ी बात कह दी आपने सर।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और अनमोल,
बधाई
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लॉग के लिए एक जबरदस्त ऐड साईट
बड़ी हसरत थी कोई तो, जुबां अपनी हिलायेगा
जवाब देंहटाएंमगर इस जग के बाशिन्दे, तो गूँगे और बहरे हैं
बहुत खूब लिखा है।
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
जवाब देंहटाएं