जहाँ नेवला-साँप का, हो जाता है मेल।
कुछ ऐसा ही समझिए, राजनीति का खेल।।
रहते हरदम ताक में, कब दें किसे पछाड़।
जिसका हो वर्चस्व कुछ, लेते उसकी आड़।।
पाँच साल के बाद में, जनता आती याद।
केवल मत के वास्ते, होती है फरियाद।।
शासन-सत्ता पाय कर, भऱता अपना पेट।
सात पीढ़ियों के लिए, दौलत रहा समेट।।
घर में जिसके हो लगा, रिश्वत का बाजार।
वो कैसे जाने भला, मँहगाई की मार।।
ग़लत नीतियों का करे, जो भरपूर विरोध।
डाल रहे हैं उसी के, कदमों में अवरोध।।
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गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013
"दोहे-राजनीति का खेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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न जाने क्या घटता रहता, राजनीति के आँगन में।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार गुरुवर-
१२-२३ प्रवास पर हूँ-सादर
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार शास्त्री जी ....
जवाब देंहटाएंराजनीति एक भैंस है खाती है जो वोट
रहती नेता भवन में, दुहते हैं वे नोट
दुहते हैं वे नोट, मगर सब चोरी चोरी
कीचड उछले लाख, चदरिया रहती कोरी
कौवों का ही झुण्ड 'जय', कौवों की काग-नीति
अब तो ये ही सोचिये कब उजली थी राजनीति
अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंक्या बात शास्त्री जी
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंग़लत नीतियों का करे, जो भरपूर विरोध।
डाल रहे हैं उसी के, कदमों में अवरोध।।
प्रासंगिक सशक्त दोहावली।
बहुत सशक्त, शुभकामनाएं.\
जवाब देंहटाएंरामराम.
जहाँ नेवला-साँप का, हो जाता है मेल।
जवाब देंहटाएंकुछ ऐसा ही समझिए, राजनीति का खेल।।
यही है राजनीति |
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