मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।
मँहगाई की मार पड़ी है, घी और तेल हुए महँगे,
कैसे तलें पकौड़ी अब, पापड़ क्या भूनें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।
हरियाली तीजों पर, कैसे लायें चोटी-बिन्दी को,
सूखे मौसम में कैसे, अब सजें-सवाँरे सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।
आँगन के कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा,
रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।
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शनिवार, 19 जुलाई 2014
"रस्सी-डोरी के झूले अब कहाँ लगायें सावन में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंअब कहाँ बाग़ और अमराईयाँ बची हैं.विकास की भेंट चढ़ गई हैं.
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 20/07/2014 को "नव प्रभात" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1680 पर.
जवाब देंहटाएंसुंदर मनभावन सावन का गीत ।
जवाब देंहटाएंअच्छी और मार्मिक गंभीरता लिए रचना !
जवाब देंहटाएंपेंड़ पर झूले कैसे डालें...आँगन में पौधों की गुंजाईश भी नहीं रही...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति.
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