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सबका अपना-अपना होता,
जीने का अन्दाज़ निराला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
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भाषा-भूषा, प्रान्त-देश का,
सम्प्रदाय का झगड़ा छोड़ो,
जो सीधे-सच्चे मानव हैं,
उनसे अपना नाता जोड़ो,
नभ जब सूरज उगता है,
लाता अपने साथ उजाला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
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पल में तोला, पल में माशा,
कभी हताशा कभी निराशा,
मन है प्यासा पंछी जैसा,
जिसकी बुझती नहीं पिपासा,
कामनाओं का अन्त न होता,
कभी न भरता इसका प्याला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
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पहन हंस सा रूप सलोना,
लगता बिल्कुल सीधा-सादा,
छल-फरेब के इस मूरत का,
समझ न पाये लोग इरादा,
विषधर तो विषधर ही होता,
काला हो चाहे पनियाला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
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“रूप” रंग का भूखा भँवरा,
गुंजन करता उपवन-उपवन,
सुमनों की सुगन्ध पाने को,
डोल रहा है कानन-कानन,
नटखट-निडर, रसिक सन्यासी,
झूम रहा बनकर मतवाला।
अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो,
बनती है शब्दों की माला।।
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शुक्रवार, 12 जून 2020
गीत "बन जाती शब्दों की माला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'),
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बहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंवाह!सर ,बहुत सुंदर सृजन ।
जवाब देंहटाएंअक्षर-अक्षर मिलकर ही तो ,
बती है शब्दों की माला ।
क्या बात है!!
अति उत्तम ,बहुत ही सुंदर कविता ,नमन
जवाब देंहटाएं