मेरी पुस्तक "स्मृति उपवन"
से
एक संस्मरण-
"तू से
आप और सर"
(डॉ.
रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--
लगभग
तैंतालीस साल पुरानी बात है। उस समय उत्तराखण्ड राज्य नही बना था। विशाल
उत्तर-प्रदेश था। मेरा निवास उन दिनों नेपाल सीमा पर बसे छोटे से स्थान बनबसा
में हुआ करता था। बनबसा में उस समय पुलिस-थाना भी नही था। यानि पढ़े-लिखे व्यक्ति
के लिए कोई अच्छा स्थान शाम को बैठने के लिए था ही नहीं। लेकिन सोसायटी तो हर
व्यक्ति को चाहिए ही, इसलिए मैं अक्सर शाम को 4 किमी दूर शारदा नदी के पार बने कस्टम-कार्यालय या इमीग्रेशन चेक-पोस्ट पर
बैठने चला जाया करता था।
गर्मियों
के दिन थे। समय यही कोई शाम के सात बजे का रहा होगा। एक ऑफीसर क्लास व्यक्ति
नेपाल से घूम कर आ रहा था। उसने कुछ आम जरूरत की छोटी-मोटी खरीदारी भी नेपाल से
की थी। जब वह कस्टम कार्यालय के सामने से गुजरा तो कस्टम अधिकारी ने उसे रोक
लिया। जब उसने अपना परिचय दिया तो कस्टम आफीसर उसे तू-तू करके सम्बोधित करने
लगा।
जो उस
व्यक्ति को बुरा लगा और उसने कहा ‘‘महोदय, आप सभ्यता से तो बात कीजिए।’’
इस पर
कस्टम अधिकारी ने कहा- ‘‘भाई मैं तो मेरठ का रहने वाला हूँ।
मेरी बोलचाल का यही लहजा है।’’
यह
वार्तालाप चल ही रहा था कि खटीमा के उप-जिलाधिकारी (S.D.M) उन सज्जन को लेने के लिए बनबसा-नेपाल
बार्डर पर आ गये अब तो कस्टम इंसपेक्टर का बात करने का लहजा ही बदल चुका था। वो
अब तू से आप पर आ गये थे।
अब तो
कस्टम इंसपेक्टर ने बड़े विनम्र भाव से मिमियाते हुए उन सज्जन से कहा- ‘‘सर! आपने बताया नही कि आप एस-डी-एम- साहब के रिलेशन में हैं।’’
लेकिन
यह सज्जन भी खेले-खाये थे, तपाक
से बोले- ‘‘क्यों भाई! अब तुम्हारी मेरठ की भाषा
कहाँ चली गयी?’’
इस पर कस्टम अधिकारी की बोलती बन्द हो गयी।
|
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शनिवार, 10 नवंबर 2018
संस्मरण "तू से आप और सर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बढ़िया संस्मरण मेरठ की जुबां तू तड़ाक की नहीं है कस्टम इंस्पेकटर की अपनी जड़ें थीं अपभाषा