एक दीपक तुम जलाओ, एक दीपक हम जलायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
आज दूषित सभ्यता की, चल रहीं हैं आँधियाँ,
आग में अलगाव की तो, जल रही हैं वादियाँ,
नफरतों को दूर करके, एकता की धुन बजायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
वतन में गन्दी सियासत, सेंकती हैं रोटियाँ,
स्वप्न ज़न्नत के दिखाकर, नोचती हैं बोटियाँ,
सूखते परिवेश में हम, नेह की फसलें उगायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
अन्न-जल खा जिस चमन में, हम पले हैं,
थामकर अँगुली वतन की हम चले हैं,
आओ श्रद्धा-भाव से उस मातृभू को सिर नवायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
जगत में अस्तित्व है जिससे हमारा,
सभी का होता जहाँ पर है गुजारा,
शौर्य के, अभिमान के हम गीत आओ गुनगुनायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
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सोमवार, 5 नवंबर 2018
गीत "इस धरा को रौशनी से जगमगायें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंआपको धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंएक दीपक तुम जलाओ, एक दीपक हम जलायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
आज दूषित सभ्यता की, चल रहीं हैं आँधियाँ,
आग में अलगाव की तो, जल रही हैं वादियाँ,
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आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
वतन में गन्दी सियासत, सेंकती हैं रोटियाँ,
स्वप्न ज़न्नत के दिखाकर, नोचती हैं बोटियाँ,
सूखते परिवेश में हम, नेह की फसलें उगायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
अन्न-जल खा जिस चमन में, हम पले हैं,
थामकर अँगुली वतन की हम चले हैं,
आओ श्रद्धा-भाव से उस मातृभू को सिर नवायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
जगत में अस्तित्व है जिससे हमारा,
सभी का होता जहाँ पर है गुजारा,
शौर्य के, अभिमान के हम गीत आओ गुनगुनायें।
आओ मिलकर इस धरा को, रौशनी से जगमगायें।।
राजनीतिक झरबेरियों की चुभन को उकेरती राष्ट्र प्रेम से भारत धर्मी विचार और स्पंदन की रचना बेहतरीन लाजावाब शास्त्री जी की। बधाई चर्चा मंच उत्सवी सप्ताह की।
veeruji05.blogspot.com