-- सुधा समझ कर पी रहा, पागल गम के घूँट। आता नहीं पहाड़ के, नीचे उसका ऊँट।। -- पागलपन
में हो गयी, वाणी भी स्वच्छन्द। लेकिन
इसमें भी कहीं, होगा कुछ आनन्द।। -- पागलपन
में सभी कुछ, होता बिल्कुल माफ। पागल को मिलता नहीं, कहीं कभी इंसाफ।। -- ऐसा
पागलपन भला, जिसमें हो लालित्य। नित्य-नियम
से बाँटता, सबको सुख आदित्य।। -- दुनिया
में होती अलग, पागल की पहचान। समाधान
करता नहीं, इसका अनुसंधान।। -- पागल
का तो पूछता, कोई नहीं मिजाज। सिर्फ
दिखावे के लिए, करते लोग इलाज।। -- न्यायालय
में भी बढ़ा, पागलपन का रोग। अपने
स्वारथ के लिए, पागल बनते लोग।।। -- इस
असार संसार में, बिखरे कितने रंग। आकुल
मेरा मन हुआ, देख जगत के ढंग।। -- राजनीति
का खा रहे, पुत्र-पौत्र-दामाद। धर्म-प्रान्त
का जात का, बढ़ा हुआ उन्माद।। -- दर्पण
गुरू समान है, मूरत होता शिष्य। जैसी
होगी कल्पना, वैसा बने भविष्य।। -- गुरू-शिष्य
पागल हुए, ज्ञान हुआ विकलांग। नहीं
भरोसा कर्म पर, बाँच रहे पंचांग।। -- राजनीति
का खा रहे, पुत्र-पौत्र-दामाद। धर्म-प्रान्त
का जात का, बढ़ा हुआ उन्माद।। -- |
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बुधवार, 9 फ़रवरी 2022
दोहे "ज्ञान हुआ विकलांग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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इस असार संसार में, बिखरे कितने रंग।
जवाब देंहटाएंआकुल मेरा मन हुआ, देख जगत के ढंग।।
सुंदर आकलन
बेहतरीन दोहे।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.02.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4337 में दिया जाएगा| आप इस चर्चा तक जरूर पहुँचेंगे, ऐसी आशा है|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
दर्पण गुरू समान है, मूरत होता शिष्य।
जवाब देंहटाएंजैसी होगी कल्पना, वैसा बने भविष्य।।
सुन्दर सार्थक सृजन ।
सामयिक दोहे...
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन हृदय स्पर्शी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।