ओस
चाटने से बुझे, नहीं किसी की प्यास।
जीव-जन्तुओं
के लिए, जल जीवन की आस।।
गन्धहीन-बिन
रंग का, पानी का है अंग।
जिसके
साथ मिलाइए, देता उसका रंग।।
पानी
का संसार में, सीमित है भण्डार।
व्यर्थ
न नीर बहाइए, जल जीवन आधार।।
जल
अमोल है सम्पदा, मानव अब तो चेत।
निर्मल
जल के पान से, सोना उगलें खेत।।
वृक्ष
बचाते धरा को, देते सुखद समीर।
लहराते
जब पेड़ हैं, घन बरसाते नीर।।
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शुक्रवार, 31 मई 2013
"जल जीवन की आस" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
गुरुवार, 30 मई 2013
"जिन्दादिली का प्रमाण दो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जिन्दा हो गर, तो जिन्दादिली का प्रमाण दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। स्वाधीनता का पाठ पढ़ाया है राम ने, क्यों गिड़िगिड़ा रहे हो शत्रुओं के सामने, अपमान करने वालों को हरगिज न मान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। तन्द्रा में क्यों पड़े हो, हिन्द के निवासियों, सहने का वक्त अब नही, भारत के वासियों, सौदागरों की बात पर बिल्कुल न ध्यान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। कश्मीर का भू-भाग दुश्मनों से छीन लो, कैलाश-मानसर को भी अपने अधीन लो, चीन-पाक को नही रज-कण का दान दो। मुर्दों की तरह, बुज-दिली के मत निशान दो।। |
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बुधवार, 29 मई 2013
"गैस सिलेण्डर है वरदान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गैस सिलेण्डर कितना प्यारा।
मम्मी की आँखों का तारा।।
रेगूलेटर अच्छा लाना।
सही ढंग से इसे लगाना।।
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गैस सिलेण्डर है वरदान।
यह रसोई-घर की है शान।।
दूघ पकाओ-चाय
बनाओ।
मनचाहे पकवान बनाओ।।
बिजली अगर नहीं है घर में।
यह प्रकाश देता पल भर में।।
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बाथरूम में इसे लगाओ।
गर्म-गर्म पानी को पाओ।।
बीत गया है वक्त पुराना।
अब आया है नया जमाना।।
कण्डे-लकड़ी अब मत लाना।
बड़ा सहज है गैस जलाना।।
किन्तु सुरक्षा को अपनाना।
इसे कार में नही लगाना।
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मंगलवार, 28 मई 2013
"खटीमा में आलइण्डिया मुशायरा एवं कविसम्मेलन सम्पन्न"
सोमवार, 27 मई 2013
"लू के गरम थपेड़े खाकर,अमलतास खिलता-मुस्काता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"मेरी एक पुरानी रचना"
लोगो को राहत पहँचाता।।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
डाली-डाली पर हैं पहने
झूमर से सोने के गहने,
पीले फूलों के गजरों का,
रूप सभी के मन को भाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
दूभर हो जाता है जीना,
तन से बहता बहुत पसीना,
शीतल छाया में सुस्ताने,
पथिक तुम्हारे नीचे आता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
स्टेशन पर सड़क किनारे,
तन पर पीताम्बर को धारे,
दुख सहकर, सुख बाँटो सबको,
सीख सभी को यह सिखलाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
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रविवार, 26 मई 2013
"हमें बहुत ही ललचाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब गर्मी का मौसम आता,
सूरज तन-मन को झुलसाता।
तन से टप-टप बहे पसीना,
जीना दूभर होता जाता।
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ऐसे मौसम में पेड़ों पर,
फल छा जाते हैं रंग-रंगीले।
उमस मिटाते हैं तन-मन की,
खाने में हैं बहुत रसीले।
ककड़ी-खीरा और खरबूजा,
प्यास बुझाता है तरबूजा।
जामुन पाचन करने वाली,
लीची मीठे रस का कूजा।
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आड़ू और खुमानी भी तो,
सबके ही मन को भाते हैं।
आलूचा और काफल भी तो,
हमें बहुत ही ललचाते हैं।
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कुसुम दहकते हैं बुराँश पर,
लगता मोहक यह नज़ारा।
इन फूलों के रस का शर्बत,
शीतल करता बदन हमारा।
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आँगन और बगीचों में कुछ,
फल वाले बिरुए उपजाओ।
सुख से रहना अगर चाहते,
पेड़ लगाओ-धरा बचाओ।
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शनिवार, 25 मई 2013
"आम फलों का राजा होता, लीची होती रानी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आम फलों का राजा होता
लीची होती रानी
गुठली ऊपर गूदा होता
छिलका है बेमानी
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जब बागों में कोयलिया ने,
अपना राग सुनाया
आम और लीची का समझो,
तब मौसम है आया
पीले, लाल-हरे रंग पर,
सब ही मोहित हो जाते
ये खट्टे-मीठे फल सबके,
मन को बहुत लुभाते
लीची पक जाती है पहले,
आम बाद में आते
बच्चे, बूढ़े-युवा प्यार से,
इनको जमकर खाते
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ठण्डी छाँव, हवा के झोंके,
अगर चाहते पाना
घर के आँगन में फलवाले,
बिरुए आप लगाना
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शुक्रवार, 24 मई 2013
"खीरा गर्मी में वरदान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तन-मन की जो हरता पीरा
वो ही कहलाता है खीरा
चाहे इसका रस पी जाओ
आधा कड़ुआ, आधा मीठा
संकर खीरा हरा पपीता
दो देशी खीरा होता है
स्वाद बहुत है इसका अच्छा
खीरे को भी करना याद
खीरा गर्मी में वरदान
इसके गुण को लो पहचान
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गुरुवार, 23 मई 2013
"गर्मी को कर देती फेल " (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शिव-शंकर को जो भाती है
बेल
वही तो कहलाती है
तापमान
जब बढ़ता जाता
पारा
ऊपर चढ़ता जाता
अनल
भास्कर जब बरसाता
लू
से तन-मन जलता जाता
तब
पेड़ों पर पकती बेल
गर्मी
को कर देती फेल
इस
फल की है महिमा न्यारी
गूदा
इसका है गुणकारी
पानी
में कुछ देर भिगाओ
घोटो-छानो
और पी जाओ
ये
शर्बत सन्ताप हरेगा
तन-मन
में उल्लास भरेगा
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बुधवार, 22 मई 2013
"कहाँ गयी केशर क्यारी?" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आज देश में उथल-पुथल क्यों,
क्यों हैं भारतवासी आरत?
कहाँ खो गया रामराज्य,
और गाँधी के सपनों का भारत?
आओ मिलकर आज विचारें,
कैसी यह मजबूरी है?
शान्ति वाटिका के सुमनों के,
उर में कैसी दूरी है?
क्यों भारत में बन्धु-बन्धु के,
लहू का आज बना प्यासा?
कहाँ खो गयी कर्णधार की,
मधु रस में भीगी भाषा?
कहाँ गयी सोने की चिड़िया,
भरने दूषित-दूर उड़ाने?
कौन ले गया छीन हमारे,
अधरों की मीठी मुस्काने?
किसने हरण किया धरती का,
कहाँ गयी केशर क्यारी?
प्रजातन्त्र की नगरी की,
क्यों आज दुखी जनता सारी?
कौन राष्ट्र का हनन कर रहा,
माता के अंग काट रहा?
भारत माँ के मधुर रक्त को,
कौन राक्षस चाट रहा?
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