ज़िन्दगी को आज खाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है
सुरा।।
--
पेट में जब पड़ गई दो
घूँट हाला,
प्रेयसी लगनी लगी हर
एक बाला,
जानवर जैसा बनाती है
सुरा।
मौत का पैगाम लाती है
सुरा।।
--
ध्यान जनता का हटाने के
लिए,
नस्ल को पागल बनाने के
लिए,
आज शासन को चलाती है
सुरा,
मौत का पैगाम लाती है
सुरा।।
--
आज मयखाने सजे हर
गाँव में,
खोलती सरकार है हर
ठाँव में,
सभ्यता पर ज़ुल्म
ढाती है सुरा।
मौत का पैगाम लाती है
सुरा।।
--
इस भयानक खेल में वो
मस्त हैं,
इसलिए भोले नशेमन त्रस्त
हैं,
हर कदम पर अब सताती है
सुरा।
मौत के पैगाम को लाती
सुरा।।
--
सोमरस के दो कसैले
घूँट पी,
तोड़ कर अपनी नकेले
ऊँट भी,
नाच नंगा अब नचाती है
सुरा।
मौत के पैगाम को लाती
सुरा।।
--
डस रहे हैं देश काले नाग
अब,
कोकिला का “रूप" भऱकर काग अब,
गान गाता आज नाती
बेसुरा।
मौत का गाना सुनाती है
सुरा।।
|
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सोमवार, 31 अगस्त 2020
गीत "शासन को चलाती है सुरा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 29 अगस्त 2020
दोहे "लाइव काव्यपाठ पर मेरे पाँच दोहे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
जब से मुखपोथी (फेसबुक) पर "लाइव काव्यपाठ" नया विकल्प आया है, तब से लगभग सभी समूहों में ऑनलाइन काव्यपाठ करवाने की होड़ लग गयी है। अच्छी बात है और लोग सुनने के लिए जुड़ भी जाते हैं। कुछ समय के लिए तो श्लेरोता दत्तचित् होकर सुनते हैं लेकिन जैसे-जैसे समय ज्यादा हो जाता है और वक्ता अपने शब्दों को विराम देता ही नहीं है तो लोघ छँटने लगते हैं और वाह-वाही के लिए मात्र आयोजक ही रह जाते हैं। तब ऐसे में काव्यपाठ का क्या लाभ है?
मेरा सुझाव है कि वक्ता को अपने बुद्धि-विवेक से काम लेना चाहिए और 30-35 मिनट में अपना साहित्य का भोग लगाना समाप्त कर देना चाहिए।
यद्पि मेरी बात कड़वी है इसलिए मुझे कहने में कोई संकोच भी नहीं है। देखिए इस परिपेक्ष्य में मेरे पाँच दोहे-
--
--
लाइव का ऐसा बढ़ा,
मुखपोथी पर रोग।
श्रोताओं को छात्र
सा, समझ रहे हैं लोग।१।
--
अभिरुचियाँ जाने
बिना, भोजन रहे परोस।।
वक्ताओं की सोच
पर, होता है अफसोस।२।
--
शब्दों में यदि
जान है, बने सार्थक कथ्य।
वो ही पढ़ना
चाहिए, जिसमें हो कुछ तथ्य।३।
--
काव्यपाठ के हैं
लिए, तीस मिनट पर्याप्त।
सार-सार पढ़कर करो,
अपना काव्य समाप्त।४।
--
अदबी लोगों में
बहुत, है कहास का लोभ।
आता अधिक सुनास
से, श्रोताओं में क्षोभ।५।
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020
बालकविता "अमरूद गदराने लगे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आ गई
बरसात तो,
अमरूद गदराने लगे। स्वच्छ जल का पान कर, डण्ठल पे इतराने लगे।।
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डालियों पर एक से हैं,
रंग में और रूप में। खिल रहे इनके मुखौटे, गन्दुमी सी धूप में।।
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कुछ हैं
छोटे. कुछ मझोले,
कुछ बड़े आकार के। मौन आमन्त्रण सभी को, दे रहे हैं प्यार से।
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किसी का मन है गुलाबी, और किसी का है धवल। पीत है चेहरा किसी का, और किसी का तन सबल।।
स्वस्थ
रहने के लिए,
खाना इसे वरदान है।
नाम का
अमरूद है,
लेकिन गुणों की खान है।।
--
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गीत "डरा रहा देश को है करोना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
धधक उठा उठा है आपदा से,
हमारे उपवन का कोना-कोना।
बहक उठी क्यारियाँ चमन में,
दहक रहा है चमकता सोना।।
चमक रहा है गगन-पटल पर,
सात-रंगी धनुष निराला,
बरस रहे हैं बदरवा रिम-झिम,
निगल रहे हैं दिवस उजाला,
नजर जमाने की लग न जाए,
लगाया नभ पर बड़ा डिठोना।
बहक उठी क्यारियाँ चमन की,
दहक रहा है चमकता सोना।।
ठुमक रहे हैं मयूर वन में,
दमक रही दामिनी गरज कर,
सहम रहे हैं सुहाने पर्वत,
डरा रहा घन लरज-लरजकर,
उबल रहे हैं नदी-सरोवर,
उजड़ गया है सुखद बिछौना।
बहक उठी क्यारियाँ चमन की,
दहक रहा है चमकता सोना।।
कहीं धूप है, कहीं हैं छाया,
कहीं है बारिश, कहीं है बादल,
सरहदों पर अब वतन की,
फिजाएँ लगती हैं आज पागल,
डरा रहा देश को है करोना।।
बहक उठी क्यारियाँ चमन की,
दहक रहा है चमकता सोना।।
सिसक रहे
हैं सुहाने मंजर,
चहल-पहल ने
किया किनारा,
खामोश हैं
आरती-अजाने,
नहीं आस का
आसमां में तारा,
आपदा में
हुआ है मुश्किल,
जिन्दगी के
वजन को ढोना।
बहक उठी क्यारियाँ चमन की,
दहक रहा है चमकता सोना।।
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गुरुवार, 27 अगस्त 2020
गीत "आशा के दीप जलाओ तो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--
जलने
को परवाना आतुर, आशा
के दीप जलाओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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मधुवन में महक समाई है, कलियों में यौवन सा छाया,
मस्ती
में दीवाना होकर, भँवरा
उपवन में मँडराया,
मन
झूम रहा होकर व्याकुल, तुम
पंखुरिया फैलाओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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मधुमक्खी भीने-भीने स्वर में, सुन्दर राग सुनाती है,
सुन्दर
पंखों वाली तितली भी, आस
लगाए आती है,
सूरज
की किरणें कहती है, कलियों
खुलकर मुस्काओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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चाहे मत दो मधु का कणभर, पर आमन्त्रण तो दे दो,
पहचानापन
विस्मृत करके, इक
मौन-निमन्त्रण तो दे दो,
काली
घनघोर घटाओं में, बिजली
बन कर आ जाओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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मंगलवार, 25 अगस्त 2020
गीत "हर सिक्के के दो पहलू हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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हर सिक्के के दो पहलू हैं, उलट-पलटकर देख ज़रा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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हर पत्थर हीरा बन जाता, जब किस्मत नायाब हो,
मोती-माणिक पत्थर लगता, उतर गई जब आब हो,
इम्तिहान में पास हुआ वो, तपकर जिसका तन निखरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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नंगे हैं अपने हमाम में, नागर हों या बनचारी,
कपड़े ढकते ऐब सभी के, चाहे नर हों या नारी,
पोल-ढोल की खुल जाती तो, आता साफ नज़र चेहरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
--
गर्मी की ऋतु में सूखी थी, पेड़ों-पौधों की डाली,
बारिश के मौसम में, छा जाती झाड़ी में हरियाली,
पानी भरा हुआ गड्ढा भी, लगता सागर सा गहरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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सोमवार, 24 अगस्त 2020
दोहे "उगने लगे बबूल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बरगद बौने हो गये, उगने लगे बबूल।
पीपल जामुन-आम को,
लोग रहे हैं भूल।।
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थोड़े से ही रह
गये, धरती पर तालाब।
बगिया में घटने
लगे, गुड़हल और गुलाब।
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धरती बंजर सी हुई,
चिन्ता की है बात।
कैमीकल की खाद से,
विकट हुए हालात।।
--
लालच के परिवेश
में, लीची हुई उदास।
नहीं रही अमरूद
में, अब कुदरती मिठास।।
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पाश्चात्य धुन में
हुए, तबला-ढोलक गोल।
कोकिल के भी हो
गये, कागा जैसे बोल।।
--
कोरोना की हो रही,
दुनिया में भरमार।
चीन जनित इस रोग
का, नहीं कहीं उपचार।।
--
अर्पण-तर्पण बन
गया, मात्र दिखावा आज।
बेमन से होने लगा,
पूजा-वन्दन काज।।
--
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रविवार, 23 अगस्त 2020
"समास अर्थात् शब्द का छोटा रूप" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
विभक्तियों का लोप कर. करता जो उद्भास।
शब्दों के विन्यास का, छोटा रूप समास।।
समास दो अथवा दो से अधिक
शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी
कह सकते हैं कि "समास वह क्रिया है, जिसके
द्वारा कम-से-कम शब्दों मे अधिक-से-अधिक अर्थ प्रकट किया जाता है।
‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ
होता है ‘छोटा-रूप’। अतः जब दो या दो से अधिक शब्द (पद) अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो
छोटा रूप बनाते हैं, उसे समास की संज्ञा दी
गयी है।
सामासिक
शब्द
समास के नियमों से निर्मित शब्द सामासिक
शब्द कहलाता है। इसे समस्तपद भी कहते हैं। समास होने के बाद विभक्तियों के चिह्न
(परसर्ग) लुप्त हो जाते हैं। जैसे-राजपुत्र।
समास-विग्रह
सामासिक शब्द में दो पद (शब्द) होते हैं।
पहले पद को पूर्वपद और दूसरे पद को उत्तरपद कहते हैं। जैसे-गंगाजल। इसमें गंगा
पूर्वपद और जल उत्तरपद है।
संस्कृत में समासों का बहुत प्रयोग होता है। अन्य
भारतीय भाषाओं में भी समास उपयोग होता है। समास के बारे में संस्कृत में एक
सूक्ति प्रसिद्ध है:
वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।
तत् पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥
समास को शब्द या समस्त पद कहते हैं। जैसे ‘रसोई
के लिए घर’ शब्दों
में से ‘के लिए’ विभक्ति
का लोप करने पर नया शब्द बना‘रसोई घर’, जो
एक सामासिक शब्द है।
किसी समस्त पद या
सामासिक शब्द को उसके विभिन्न पदों एवं विभक्ति सहित पृथक् करने की क्रिया को समास का विग्रह कहते हैं -
जैसे विद्यालय अर्थात विद्या के लिए आलय,
माता-पिता=माता और
पिता।
समास के छ: भेद होते है-
1. अव्ययीभाव समास - (Adverbial Compound)
2. तत्पुरुष समास - (Determinative Compound)
3. कर्मधारय समास - (Appositional Compound)
4. द्विगु समास - (Numeral Compound)
5. द्वंद्व समास - (Copulative Compound)
6. बहुव्रीहि समास - (Attributive Compound)
1. अव्ययीभाव समास:
अव्ययीभाव समास में प्रायः
(i)पहला पद प्रधान होता है।
(ii) पहला पद या पूरा पद
अव्यय होता है।
(वे शब्द जो लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार
नहीं बदलते, उन्हें अव्यय कहते हैं)
(iii)यदि एक शब्द की
पुनरावृत्ति हो और दोनों शब्द मिलकर अव्यय की तरह
प्रयुक्त हो, वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है।
(iv) संस्कृत के उपसर्ग युक्त
पद भी अव्ययीभव समास होते हैं-
यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
यथाशीघ्र = जितना शीघ्र हो
यथाक्रम = क्रम के अनुसार
यथाविधि = विधि के अनुसार
यथावसर = अवसर के अनुसार
यथेच्छा = इच्छा के अनुसार
प्रतिदिन = प्रत्येक दिन। दिन-दिन। हर दिन
प्रत्येक = हर एक। एक-एक। प्रति एक
प्रत्यक्ष = अक्षि के आगे
घर-घर = प्रत्येक घर। हर घर। किसी भी घर को न छोड़कर
हाथों-हाथ = एक हाथ से दूसरे हाथ तक। हाथ ही हाथ में
रातों-रात = रात ही रात में
बीचों-बीच = ठीक बीच में
साफ-साफ = साफ के बाद साफ। बिल्कुल साफ
आमरण = मरने तक। मरणपर्यन्त
आसमुद्र = समुद्रपर्यन्त
भरपेट = पेट भरकर
अनुकूल = जैसा कूल है वैसा
यावज्जीवन = जीवनपर्यन्त
निर्विवाद = बिना विवाद के
दर असल = असल में
बाकायदा = कायदे के अनुसार
2. तत्पुरुष समास:
(i)तत्पुरुष समास में दूसरा
पद (पर पद) प्रधान होता है अर्थात् विभक्ति का लिंग, वचन दूसरे पद के अनुसार
होता है।
(ii) इसका विग्रह करने पर
कत्र्ता व सम्बोधन की विभक्तियों (ने, हे, ओ, अरे) के अतिरिक्त किसी
भी कारक की विभक्ति प्रयुक्त होती है तथा विभक्तियों के
अनुसार ही इसके उपभेद होते हैं।
जैसे –
(क) कर्म तत्पुरुष (को)
कृष्णार्पण = कृष्ण को अर्पण
नेत्र सुखद = नेत्रों को सुखद
वन-गमन = वन को गमन
जेब कतरा = जेब को कतरने वाला
प्राप्तोदक = उदक को प्राप्त
(ख) करण तत्पुरुष (से/के द्वारा)
ईश्वर-प्रदत्त = ईश्वर से प्रदत्त
हस्त-लिखित = हस्त (हाथ) से लिखित
तुलसीकृत = तुलसी द्वारा रचित
दयार्द्र = दया से आर्द्र
रत्न जडि़त = रत्नों से जडि़त
(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष (के लिए)
हवन-सामग्री = हवन के लिए सामग्री
विद्यालय = विद्या के लिए आलय
गुरु-दक्षिणा = गुरु के लिए दक्षिणा
बलि-पशु = बलि के लिए पशु
(घ) अपादान तत्पुरुष (से पृथक्)
ऋण-मुक्त = ऋण से मुक्त
पदच्युत = पद से च्युत
मार्ग भ्रष्ट = मार्ग से भ्रष्ट
धर्म-विमुख = धर्म से विमुख
देश-निकाला = देश से निकाला
(च) सम्बन्ध तत्पुरुष (का, के, की)
मन्त्रि-परिषद् = मन्त्रियों की परिषद्
प्रेम-सागर = प्रेम का सागर
राजमाता = राजा की माता
अमचूर =आम का चूर्ण
रामचरित = राम का चरित
(छ) अधिकरण तत्पुरुष (में, पे, पर)
वनवास = वन में वास
जीवदया = जीवों पर दया
ध्यान-मग्न = ध्यान में मग्न
घुड़सवार = घोड़े पर सवार
घृतान्न = घी में पक्का अन्न
कवि पुंगव = कवियों में श्रेष्ठ
3. द्वन्द्व समास
(i) द्वन्द्व समास में दोनों
पद प्रधान होते हैं।
(ii) दोनों पद प्रायः एक
दूसरे के विलोम होते हैं, सदैव नहीं।
(iii) इसका विग्रह करने पर ‘और’, अथवा ‘या’ का प्रयोग होता है।
माता-पिता = माता और पिता
दाल-रोटी = दाल और रोटी
पाप-पुण्य = पाप या पुण्य/पाप और पुण्य
अन्न-जल = अन्न और जल
जलवायु = जल और वायु
फल-फूल = फल और फूल
भला-बुरा = भला या बुरा
रुपया-पैसा = रुपया और पैसा
अपना-पराया = अपना या पराया
नील-लोहित = नीला और लोहित (लाल)
धर्माधर्म = धर्म या अधर्म
सुरासुर = सुर या असुर/सुर और असुर
शीतोष्ण = शीत या उष्ण
यशापयश = यश या अपयश
शीतातप = शीत या आतप
शस्त्रास्त्र = शस्त्र और अस्त्र
कृष्णार्जुन = कृष्ण और अर्जुन
4. बहुब्रीहि समास
(i)
बहुब्रीहि समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता।
(ii)
इसमें प्रयुक्त पदों के सामान्य अर्थ की अपेक्षा अन्य अर्थ की प्रधानता रहती है।
(iii)
इसका विग्रह करने पर ‘वाला, है, जो, जिसका, जिसकी,जिसके, वह आदि आते हैं।
गजानन = गज का आनन है जिसका वह (गणेश)
त्रिनेत्र = तीन नेत्र हैं जिसके वह (शिव)
चतुर्भुज = चार भुजाएँ हैं जिसकी वह (विष्णु)
षडानन = षट् (छः) आनन हैं जिसके वह (कार्तिकेय)
दशानन = दश आनन हैं जिसके वह (रावण)
घनश्याम = घन जैसा श्याम है जो वह (कृष्ण)
पीताम्बर = पीत अम्बर हैं जिसके वह (विष्णु)
चन्द्रचूड़ = चन्द्र चूड़ पर है जिसके वह
गिरिधर = गिरि को धारण करने वाला है जो वह
मुरारि = मुर का अरि है जो वह
आशुतोष = आशु (शीघ्र) प्रसन्न होता है जो वह
नीललोहित = नीला है लहू जिसका वह
वज्रपाणि = वज्र है पाणि में जिसके वह
सुग्रीव = सुन्दर है ग्रीवा जिसकी वह
मधुसूदन = मधु को मारने वाला है जो वह
आजानुबाहु = जानुओं (घुटनों) तक बाहुएँ हैं
जिसकी वह
नीलकण्ठ = नीला कण्ठ है जिसका वह
महादेव = देवताओं में महान् है जो वह
मयूरवाहन = मयूर है वाहन जिसका वह
कमलनयन = कमल के समान नयन हैं जिसके वह
कनकटा = कटे हुए कान है जिसके वह
जलज = जल में जन्मने वाला है जो वह (कमल)
वाल्मीकि = वल्मीक से उत्पन्न है जो वह
दिगम्बर = दिशाएँ ही हैं जिसका अम्बर ऐसा
वह
कुशाग्रबुद्धि = कुश के अग्रभाग के समान
बुद्धि है जिसकी वह
मन्द बुद्धि = मन्द है बुद्धि जिसकी वह
जितेन्द्रिय = जीत ली हैं इन्द्रियाँ जिसने
वह
चन्द्रमुखी = चन्द्रमा के समान मुखवाली है जो वह
अष्टाध्यायी = अष्ट अध्यायों की पुस्तक है
जो वह
5. द्विगु समास
(i)द्विगु समास में प्रायः
पूर्वपद संख्यावाचक होता है तो कभी-कभी परपद भी संख्यावाचक देखा जा सकता है।
(ii) द्विगु समास में
प्रयुक्त संख्या किसी समूह का बोध कराती है अन्य
अर्थ का नहीं, जैसा कि
बहुब्रीहि समास में देखा है।
(iii)इसका विग्रह करने पर ‘समूह’ या ‘समाहार’ शब्द प्रयुक्त होता है।
दोराहा = दो राहों का समाहार
पक्षद्वय = दो पक्षों का समूह
सम्पादक द्वय = दो सम्पादकों का समूह
त्रिभुज = तीन भुजाओं का समाहार
त्रिलोक या त्रिलोकी = तीन लोकों का समाहार
त्रिरत्न = तीन रत्नों का समूह
संकलन-त्रय = तीन का समाहार
भुवन-त्रय = तीन भुवनों का समाहार
चैमासा/चतुर्मास = चार मासों का समाहार
चतुर्भुज = चार भुजाओं का समाहार (रेखीय आकृति)
चतुर्वर्ण = चार वर्णों का समाहार
पंचामृत = पाँच अमृतों का समाहार
पंचपात्र = पाँच पात्रों का समाहार
पंचवटी = पाँच वटों का समाहार
षड्भुज = षट् (छः) भुजाओं का समाहार
सप्ताह = सप्त अहों (सात दिनों) का समाहार
सतसई = सात सौ का समाहार
सप्तशती = सप्त शतकों का समाहार
सप्तर्षि = सात ऋषियों का समूह
अष्ट-सिद्धि = आठ सिद्धियों का समाहार
नवरत्न = नौ रत्नों का समूह
नवरात्र = नौ रात्रियों का समाहार
दशक = दश का समाहार
शतक = सौ का समाहार
शताब्दी = शत (सौ) अब्दों (वर्षों) का समाहार
6. कर्मधारय समास
(i)कर्मधारय समास में एक पद
विशेषण होता है तो दूसरा पद विशेष्य।
(ii) इसमें कहीं कहीं उपमेय
उपमान का सम्बन्ध होता है
तथा विग्रह करने पर ‘रूपी’ शब्द प्रयुक्त होता है
पुरुषोत्तम = पुरुष जो उत्तम
नीलकमल = नीला जो कमल
महापुरुष = महान् है जो पुरुष
घन-श्याम = घन जैसा श्याम
पीताम्बर = पीत है जो अम्बर
महर्षि = महान् है जो ऋषि
नराधम = अधम है जो नर
अधमरा = आधा है जो मरा
रक्ताम्बर = रक्त के रंग का (लाल) जो अम्बर
कुमति = कुत्सित जो मति
कुपुत्र = कुत्सित जो पुत्र
दुष्कर्म = दूषित है जो कर्म
चरम-सीमा = चरम है जो सीमा
लाल-मिर्च = लाल है जो मिर्च
कृष्ण-पक्ष = कृष्ण (काला) है जो पक्ष
मन्द-बुद्धि = मन्द जो बुद्धि
शुभागमन = शुभ है जो आगमन
नीलोत्पल = नीला है जो उत्पल
मृग नयन = मृग के समान नयन
चन्द्र मुख = चन्द्र जैसा मुख
राजर्षि = जो राजा भी है और ऋषि भी
नरसिंह = जो नर भी है और सिंह भी
मुख-चन्द्र = मुख रूपी चन्द्रमा
वचनामृत = वचनरूपी अमृत
भव-सागर = भव रूपी सागर
चरण-कमल = चरण रूपी कमल
क्रोधाग्नि = क्रोध रूपी अग्नि
चरणारविन्द = चरण रूपी अरविन्द
विद्या-धन = विद्यारूपी धन
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इति समास प्रकरणम्...!!
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