-- मानव दानव बन बैठा है, जग के झंझावातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।। -- होड़ लगी आगे बढ़ने की, मची हुई आपा-धापी, मुख में राम बगल में चाकू, मनवा है कितना पापी, दिवस-रैन उलझा रहता है, घातों में प्रतिघातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।। -- जीने का अन्दाज जगत में, कितना नया निराला है, ठोकर पर ठोकर खाकर भी, खुद को नही संभाला है, ज्ञान-पुंज से ध्यान हटाकर, लिपटा गन्दी बातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।। -- मीत, पड़ोसी, भाई भी, भाई के शोणित का प्यासा, भूल चुके हैं सीधी-सादी, सम्बन्धों की परिभाषा। विष के पादप उगे बाग में, जहर भरा है नातों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।। -- एक चमन में रहते-सहते, जटिल-कुटिल मतभेद हुए, बाँट लिया गुलशन को फिर भी, दूर न मन के भेद हुए, खेल रहे वो ग्राहक बन कर, दुष्ट-बणिक के हाथों में। दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।। -- |
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रविवार, 30 जून 2024
गीत "मची हुई आपा-धापी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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