काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया। स्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया। शूल की धसान में, फूल छाँटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- चेतना के गाँव में, चेतना तो सो गयी। अन्धकार छा गया, सुबह से शाम हो गयी, और मैं मकान में, गूल पाटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- रत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में। अभी तो कुछ मिला नहीं, पत्थरों के वेश में। किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- चन्द्रिका ‘मयंक’ की, तन-बदन जला रही। कुटिलग्रहों की चाल अब, कुचक्र को चला रही। और मैं मचान की, झूल काटता रहा। काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।। -- |
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गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021
गीत "उसूल बाँटता रहा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुंदर गीत आदरणीय
जवाब देंहटाएंरत्न खोजने चला हूँ, पर्वतों के देश में।
जवाब देंहटाएंअभी तो कुछ मिला नहीं, पत्थरों के वेश में।
किन्तु ख़ानदान में, उसूल बाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
लाजवाब...
पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया।
जवाब देंहटाएंस्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया।
बहुत खूब,सादर नमन सर