-- आँचल में प्यार लेकर, भीनी फुहार लेकर. आई होली, आई होली, आई होली रे! भीनी फुहार लेकर. आई होली, आई होली, आई होली रे! -- चटक रही सेंमल की कलियाँ, चलती मस्त बयारे। मटक रही हैं मन की गलियाँ, बजते ढोल नगारे। निर्मल रसधार लेकर, फूलों के हार लेकर, आई होली, आई होली, आई होली रे! -- मीठे सुर में बोल रही है, बागों में कोयलिया। कानों में रस घोल रही है, कान्हा की बाँसुरिया। रंगों की धार लेकर, अभिनव शृंगार लेकर, आई होली, आई होली, आई होली रे! -- लहराती खेतों में फसलें, तन-मन है लहराया. वासन्ती परिधान पहनकर, खिलता फागुन आया, महकी मनुहार लेकर, गुझिया उपहार लेकर, आई होली, आई होली, आई होली रे! -- |
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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023
गीत "खिलता फागुन आया-आई होली रे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सोमवार, 27 फ़रवरी 2023
होली गीत "छाया है उल्लास, चलो होली खेलेंगे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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रविवार, 26 फ़रवरी 2023
गीत "मन के जरा विकार हरो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- देता है ऋतुराज निमन्त्रण, तन-मन का शृंगार करो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- नये पंख पक्षी पाते हैं, नवपल्लव वृक्षों में आते, आँगन-उपवन, तन-मन सबके, वासन्ती होकर मुस्काते, स्नेह और श्रद्धा-आशा के दीपों का आधार धरो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- मन के हारे हार और मन के जीते ही जीत यहाँ, नजर उठा करके तो देखो, बुला रही है प्रीत यहाँ, उड़ने को उन्मुक्त गगन है, मन के जरा विकार हरो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- धर्म-अर्थ और काम-मोक्ष के, लिए मिला यह जीवन है, मैल हटाओ, द्वेश मिटाओ, निर्मल तन में निर्मल मन है, दीन-दुखी को गले लगाओ, समता का व्यवहार करो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- |
शनिवार, 25 फ़रवरी 2023
गीत "कंचन का गलियारा है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
वासन्ती परिधान पहनकर, मौसम आया प्यारा है। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। -- तितली सुन्दर पंख हिलाती, भँवरे गुंजन करते हैं, खेतों में लहराते बिरुए, जीवन में रस भरते हैं, उपवन की फुलवारी लगती कंचन का गलियारा है। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। -- बीन-बीनकर तिनके लाते, चिड़िया और कबूतर भी, बड़े जतन से नीड़ बनाते, बया-चील और तीतर भी, जंगल में टेसू का पादप, बना हुआ अंगारा है। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। -- अंगूरों के गुच्छे लटके, फिर आँगन की बेलों में, सुर्ख रंग के फूल खिले हैं, फिर बगिया के केलों में, इठलाती-बलखाती फिर से, बहती निर्मल धारा हैं। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। -- प्रणय दिवस का भूत चढ़ा है, यौवन की अँगड़ाई में, छल-फरेब का चलन बढ़ा है, पूरब की पुरवाई में, रस के लोभी पागल मधुकर, घूम रहे आवारा हैं। कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।। -- |
शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023
संस्मरण "साहित्यकार से पहले अच्छे व्यक्ति बनिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
(चित्र में- (बालक) मेरा छोटा पुत्र विनीत, मेरे कन्धे पर हाथ रखे बाबा नागार्जुन और चाय वाले भट्ट जी, पीछे- आज से वर्ष पूर्व का खटीमा का बस स्टेशन। जहाँ दुर्गादत्त भट्ट जी की चाय की दुकान थी, साथ में वह भी खड़े हैं) बाबा नागार्जुन की इतनी स्मृतियाँ मेरे मन और मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं कि एक संस्मरण लिखता हूँ
तो दूसरा याद आ आता है। मेरे व वाचस्पति जी के एक चाटुकार मित्र थे। जो वैद्य
जी के नाम से मशहूर थे। वे अपने नाम के आगे ‘निराश’ लिखते थे। अच्छे शायर माने जाते
थे। आजकल तो दिवंगत हैं।
परन्तु धोखा-धड़ी और झूठ का व्यापार इतनी सफाई व सहजता से करते थे कि पहली बार
में तो कितना ही चतुर व्यक्ति क्यों न हो उनके जाल में फँस ही जाता था। बात सन् 1989 की है, उन दिनों बाबा
नागार्जुन का प्रवास खटीमा में ही था। यहाँ नवनिर्मित राजकीय डिग्री कॉलेज में वाचस्पति जी हिन्दी
के प्राध्यापक थे। इसलिए विभिन्न कालेजों की हिन्दी विषय की कापी उनके पास
मूल्यांकन के लिए आती थीं। उन दिनों चाँदपुर के कालेज की कापियाँ उनके पास आयी
हुईं थी। तभी की बात है कि दिन में लगभग 2 बजे एक सज्जन वाचस्पति जी का घर पूछ रहे थे। उन्हें वैद्य जी टकरा गये और वाचस्पति जी के नीचे ही "राजीव बर्तन स्टोर" पर बैठ कर उससे बातें करने लगे। बातों-बातों में यह निष्कर्ष निकला कि उनके पुत्र का हिन्दी का प्रश्नपत्र अच्छा नही गया था। इसलिए वो उसके नम्बर बढ़वाने के लिए किन्ही वाचस्पति प्रोफेसर के यहाँ आये हैं। वैद्य जी ने छूटते ही कहा- "प्रोफेसर
वाचस्पति तो मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं। लेकिन वो एक नम्बर बढ़ाने के एक सौ
रुपये लेते हैं। आपको जितने नम्बर बढ़वाने हों, हिसाब लगा कर उतने रुपये दे
दीजिए।" बर्तन वाला राजीव यह
सब सुन रहा था। उसकी दूकान के ऊपर ही वाचस्पति जी का निवास था और वह उनका परम
भक्त था। राजीव चुपके से अपनी दुकान से उठा और पीछे वाले रास्ते से आकर वाचस्पति जी से जाकर बोला- ‘‘सर जी ! आप भी 100 रु0 नम्बर के
हिसाब से ही परीक्षा में नम्बर बढ़ा देते हैं क्या?’’
और उसने अपनी
दुकान पर हुई पूरी घटना बता दी। वाचस्पति जी ने राजीव
से कहा- "जब वैद्य जी! चाँदपुर से आये व्यक्ति का पीछा छोड़ दें, तो उस व्यक्ति को मेरे पास बुला
लाना।" इधर वैद्य जी ने 10 अंक बढ़वाने के लिए चाँदपुर वाले व्यक्ति से एक हजार रुपये ऐंठ लिए थे। उस समय 1000 रुपये अच्छी-खासी धनराशि मानी जाती थी। बाबा नागार्जुन उन दिनों खटीमा में आये हुए थे और चारपाई पुर बैठे हुए, राजीव
और वाचस्पति जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे। थोड़ी ही देर में "वैद्य जी" वाचस्पति जी के घर आ धमके। इसी की आशा हम लोग भी कर रहे थे। पहले तो
औपचारिकता की बातें होती रहीं। फिर वैद्य जी असली मुद्दे पर आ गये और कहने लगे
कि मेरे छोटे भाई चाँदपुर में रहते हैं। सुना है कि आपके पास चाँदपुर के कालेज
की हिन्दी की कापियाँ जँचने के लिए आयीं है। आप प्लीज मेरे भतीजे के 10 नम्बर
बढ़ा दीजिए। वाचस्पति जी ने कहा- ‘‘वैद्य जी मैं यह व्यापार नही करता
हूँ।’’ तब तक राजीव चाँदपुर वाले व्यक्ति को भी लेकर आ गया। हम लोग तो वैद्य जी से
कुछ बोले नही। परन्तु बाबा नागार्जुन ने वैद्य जी की क्लास लेनी शुरू कर दी।
सभ्यता के दायरे में जो कुछ भी कहा जा सकता था बाबा ने खरी-खोटी के रूप में वो
सब कुछ वैद्य जी को सुनाया। अब बाबा ने चाँदपुर
वाले व्यक्ति से पूछा- ‘‘आपसे इस दुष्ट ने कुछ लिया तो नही
है।’’ तब 1000 रुपये वाली बात
सामने आयी। बाबा ने जब तक उस
व्यक्ति के रुपये वैद्य जी से वापिस नही करवा दिये तब तक वैद्य जी का पीछा नही
छोड़ा। बाबा ने वैद्य जी से मुखातिब होकर कहा- ‘‘वैद्य जी अब तो मुझे यह आभास हो रहा है
कि तुम जो कविताएँ सुनाते हो वह भी कहीं से पार की हुईं ही होंगी। साथ ही वैद्य
जी को हिदायत देते हुए कहा- "अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी
है।" |
गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023
गीत "प्यार के परिवेश की सूखी धरा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- होश गुम हैं, जोश है मन में भरा। प्यार के परिवेश की सूखी धरा।। चल पड़ा है दौर कैसा, हर बशर मगरूर है, आदमी की आदमीयत आज चकनाचूर है, हाट में मिलता नहीं सोना खरा। प्यार के परिवेश की सूखी धरा।। खो गया है गाँव का वातावरण, हो गया दूषित शहर का आवरण, जी रहा इंसान होकर अधमरा। प्यार के परिवेश की सूखी धरा।। अब नहीं मासूम लगता कोई बालक, हो गया मजबूर जग को आज पालक, मिट गया है जिन्दगी का आसरा। प्यार के परिवेश की सूखी धरा।। लाज का बदला हुआ पर्याय है, वासना का अब शरू अध्याय है, गीत ने पहना रुपहला घाघरा। प्यार के परिवेश की सूखी धरा।। लीलता ऋतुराज को अब कौन है, कोकिला मधुमास में भी मौन है, हो गया है ज्ञान कितना बावरा। प्यार के परिवेश की सूखी धरा।। -- |
बुधवार, 22 फ़रवरी 2023
दोहे "जीवन की राह" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सूरज ने दिखला दिया, अपना अनुपम रूप। शीतलता मिटने लगी, खिली सुहानी धूप।1। सूरज में बढ़ने लगी, जैसे-जैसे आग। किरणें उगती देखकर, गया कुहासा भाग।2। जिनको कल पाला कभी, आज रहे वे पाल। प्रजातन्त्र में इस तरह, होता सदा कमाल।3। कब आयेंगे दिवस वो, जब होगें दुख दूर। दुलहन बिना सुहाग के, मद में रहती चूर।4। मंजिल पाने के लिए, होते जोड़-घटाव। लहरों के आगोश में, कागज की है नाव।5। जाती है उस ओर ही, होता जिधर बहाव। मन बहलाने के लिए, कागज की है नाव।6। चाहे कितने चाटिए, ताकत के अवलेह। अमर नहीं रहती कभी, पञ्चतत्व की देह।7। कभी जुदाई है यहाँ, और कभी है मेल। सबका है संसार में, चार दिनों का
खेल।8। नहीं सभी के भाग्य में, धन-दौलत
सन्तान। लक्ष्य बेधना है नहीं, इतना भी
आसान।9। -- आपाधापी में कटी, इस जीवन की राह। जीते-जी पूरी नहीं, हुई किसी की चाह।10। |
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