मुक्तक काव्य
क्या होता है? काव्य की वह रचना जिसमें कथा नहीं होती और प्रत्येक छन्द पूर्व पद के प्रसंग से मुक्त होता है, मुक्तक
काव्य कहलाता है। इसमें एक अनुभूति, एक भाव और एक ही कल्पना का चित्रण होता है साथ ही मुक्तक काव्य की भाषा सरल व स्पष्ट होती है । इसका प्रत्येक छन्द स्वतन्त्र होता
है ।
पहले मुक्त काव्य का अस्तित्व नहीं था, अपितु यह आधुनिक युग की ही देन है। इसके प्रणेता
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते
हैं। मुक्त काव्य नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछन्द गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त
छन्द की विशेषता हैं।
काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो मुक्तक कहलाता
है। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध
या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे, मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएँ हैं।
हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई।
यहाँ यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि समान मात्राभार और समान लय वाली
रचना को चतुष्पदी (मुक्तक) कहा गया है। चतुष्पदी में पहला, दूसरा और
चौथा पद तुकान्त तथा तीसरा पद अतुकान्त होता है और जिसकी अभिव्यक्ति का केंद्र
अंतिम दो पंक्तियों में होता है। उदाहरण
के लिए मेरे कुछ मुक्तक देखिए- -- दुर्बल
पौधों को ही ज्यादा, पानी-खाद मिला करती है। चालू
शेरों पर ही अक्सर, ज्यादा दाद मिला करती है। सूखे
पेड़ों पर बसन्त का, कोई असर नही होता है, यौवन
ढल जाने पर सबकी गर्दन बहुत हिला करती है।1। -- तुम्हारी
याद को लेकर, बड़ी ही दूर आये हैं। लबों
पर प्यास आयी तो, तुम्हारे जाम पाये हैं। छिपाकर
अपनी आँखों में तुम्हारा नूर लाये हैं, लिखाकर
दिल की कोटर में, तुम्हारा नाम लाये हैं।2। -- आँखें
कभी छला करती हैं, आँखे
कभी खला करती हैं। गैरों
को अपना कर लेती, जब
ये आँख मिला करती हैं।3। -- नेह
का नीर पिलाकर देखो। शोख
कलियों को खिला कर देखो। वेवजहा
हाथ मिलाने से कुछ नहीं होगा, दिल
से दिल को तो मिलाकर देखो।4। -- अब
तो हर बात बहुत दूर गई। दिल
की सौगात बहुत दूर गई। रौशनी
अब नज़र नहीं आती, चाँदनी
रात बहुत दूर गई।5। -- जीवन
में तम को हरने को, चिंगारी आ जाती है। घर
को आलोकित करने को, बहुत जरूरी बाती है। होली
की ज्वाला हो चाहे, तम से भरी अमावस हो, हवनकुण्ड
में ज्वाला बन, बाती कर्तव्य निभाती है।6। -- हम
दधिचि के वंशज हैं, ऋषियों की हम सन्ताने हैं। मातृभूमि
की शम्मा पर, आहुति देते परवाने हैं। कभी
भी भूल मत करना, हमें कायर समझने की, उग्रवाद-आतंकवाद
से, डरते
नहीं दीवाने हैं।7। -- कहीं
चन्दा चमकता है, कहीं सूरज निकलता है। नहीं
रुकता, नहीं
थकता, समय
का चक्र चलता है। लड़ा
तूफान से जो भी, सिकन्दर बन गया वो ही, उजाले
के लिए रातों में, नन्हा दीप जलता है।8। -- सम्भल
कर पग बढ़ा आगे, बड़ी संगीन राहें हैं, समन्दर
की लहर में भी छिपीं, गमगीन आहें हैं। मुसाफिर
खो नहीं जाना, कहीं पुरनूर गलियों में, पनपती
हैं सभी के दिल में, तो रंगीन चाहें हैं।9। -- कभी
लूटा है शब्दों में पगी, वाचिक सदाओं ने। कभी
लूटा नयन की, मदभरी दिलकश अदाओं ने। भँवर
आया नहीं कोई, लहर आयी नहीं कोई, डुबोया
है सफीना रेत में, बस नाखुदाओं ने।10। -- एक
सुमन खिल जायेगा, मुरझायेंगे कई। छल
की भरी शराब है, बोतल बदल गई। आये
हैं लाखों खर्चकर, पायेंगे सौ करोड़, मिल
जायेगी कुर्सी जिसे, मुस्काएगा वही।11। -- सत्ता
का सुख मिला तो भाग्यवान हो गया। बिरुआ
बबूल का तो नौजवान हो गया। युवराज
बनके उसने विरासत सम्भाल ली, लिक्खा-पढ़ा
हुआ तो बेजुबान हो गया।12। -- मक्कार-बेईमान
ताल ठोक कर खड़े हुए। ईमानदार
जाँच के बबाल में पड़े हुए। खाते
लज़ीज़ माल देश का कसाब हैं, गद्दार
आज कीर्तिमान पर अड़े हुए।13। -- आग
को आग समझो, जलाती है ये। अपनी
औकात सबको बताती है ये। दिल
के ज़ज़्बात से खेलना मत कभी, अच्छे-अच्छों
के दिल को सताती है ये।14। -- श्वेत
परिधान हैं, सादगी के लिए। सभ्यता
है बनी, आदमी
के लिए। दाग
माथे का हो या हो पौशाक का, दाग़
तो दाग़ है ज़िन्दग़ी के लिए।15। -- सात
रंग से भरा, फाग है ज़िन्दग़ी। दोस्ती
का चमन, बाग
है ज़िन्दग़ी। मत
ग़लत सुर लगाना, कभी भी यहाँ, गीत
और प्रीत का राग है ज़िन्दग़ी।16। -- जरा
सी बात पर कोई, नहीं यूँ ही भड़कता है। जो
जिन्दा हैं उन्हीं का तो, हमेशा दिल धड़कता है। पतिंगा
चल पड़ा है, शम्मा पर कुरबान होने को, तनिक
सा प्यार पाने को ही परवाना फड़कता है।17। -- फ़लक
उल्फत से धरती को, हमेशा झाँकता रहता। मिलन
के चाह में वो, रात में भी ताँकता रहता। मगर
इन आसमानों को, नहीं मनमीत मिलता है, वो
क़ातिब है किताबों में, हुनर को बाँचता रहता।18। -- जानते
हैं सच तभी तो मौन हैं वो, और
ज्यादा क्या कहें हम कौन हैं वो। जो
हमारे दिल में रहते थे हमेशा, हरकतों
से हो गए अब गौण हैं वो।19। -- दिल
तो सूखा कुआँ नहीं होता, बिन
लिखे मजमुआँ नहीं होता। लोग
पल-पल की ख़बर रखते हैं- आग
के बिन धुँआ नहीं होता।20। -- उनकी
सौगात बहुत दूर गई, लगता
है बात बहुत दूर गई। रौशनी
होगी नहीं तारों से- चाँदनी
रात बहुत दूर गई।21। -- कोई
आया था हौसले भरने, कोई
आया था चोंचले करने। कोई
आया था खास मक़सद से- कोई
आया था फासले करने।22। -- इतनी
मजबूत राह थी पाई, एक
बरसात में बनी खाई। दोष
क्यों दे रहे हो लहरों को- जब
किनारे हुए हैं हरजाई।23। -- कुटिलता
के भाव को पहचानते हैं। शत्रुता
दिल में नहीं हम ठानते हैं। वो
चलाते जा रहे हैं तीर अपने, किन्तु हम चुपचाप सहना जानते हैं।24। -- सुबह
और शाम को मच्छर, सदा गुणगान करते हैं। जगत के
उस नियन्ता को, सदा प्रणाम करते हैं। मगर
इन्सान है खुदगर्ज कितना आज के युग में,
विपत्ति जब सताती है, नमन शैतान करते है।25। -समाप्त- |
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रविवार, 31 मार्च 2024
मुक्तक "मेरे पच्चीस मुक्तक" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 30 मार्च 2024
दोहे "जालजगत पर मापनी, कितनों की कमजोर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
-- मुखपोथी के खेत में, बैठे दावेदार। लेखक ऐसे उग रहे, जैसे खर-पतवार।। -- कुछ कविता के चोर हैं, कुछ हैं
दोहाखोर। जालजगत पर मापनी, कितनों की कमजोर।। -- अब चुल्लूभर नीर में, चले थामकर डोर। माणिक-मोती खोजते, डूबे गोताखोर।। -- जिसमें रंग हजार हों, वही प्यार
का रोग। मंजिल को पाना उसे,
है बिल्कुल आसान।। -- सरल शब्द का कीजिए, कविता में उपयोग। जटिल काव्य को तो नहीं, पढ़ते सारे लोग।। -- जो दिल से निकले वही, कहलाता है
भाव। भावों का अब काव्य में, होने लगा अभाव।। -- नवयुग में साहित्य का, बहुत बुरा
है हाल। नेह-नीर के बिन सभी, सूखे नदिया-ताल।। -- |
दोहे "विद्या के बैल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- जिनको कुछ भी है नही, छन्दों की पहचान। लगे सिखाने आज वो, जग को छन्द-विधान।। -- गति-यति, तुक-लय का नहीं, जो रखते हैं ध्यान। वही शान से परसते, लोगों को अज्ञान।। -- हँसी-खेल मत समझना, छन्दबद्ध साहित्य। चोरी से आता नहीं, शब्दों में लालित्य।। -- चाहे कविता चोर हों, या हो दोहाखोर। मुखपोथी पर अधिक हैं, अज्ञानी मुँहजोर।। -- जो तन-मन का आज तक, छुड़ा न पाये मैल। पर्वत को ललकारते, वो विद्या के बैल।। -- जो थोड़े से ज्ञान पर, करते हैं अभिमान। पढ़े लिखों की सभा में, सहते वो अपमान।। -- तुलसी और कबीर के, चुरा रहे जो भाव। मौलिकता का काव्य में, उनके भरा अभाव।। -- |
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