-- सबका अपना-अपना होता, जीने का अन्दाज़ निराला। अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो, बनती है शब्दों की माला।। -- भाषा-भूषा, प्रान्त-देश का, सम्प्रदाय का झगड़ा छोड़ो, जो सीधे-सच्चे मानव हैं, उनसे अपना नाता जोड़ो, नभ में जब सूरज उगता है, लाता अपने साथ उजाला। अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो, बनती है शब्दों की माला।। -- पल में तोला, पल में माशा, कभी हताशा कभी निराशा, ऐसा-वैसा, कैसा-कैसा, मन है प्यासा पंछी जैसा, उसकी बुझती नहीं पिपासा, कभी न भरता मन का प्याला। अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो, बनती है शब्दों की माला।। -- पहन हंस की धवल केंचुली, बगुला लगता सीधा-सादा, छल-फरेब की इस मूरत का, समझ न पाये लोग इरादा, विषधर तो विषधर ही होता, चाहे काला या पनियाला। अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो, बनती है शब्दों की माला।। -- “रूप” देखकर पागल भँवरा, गुंजन करता उपवन-उपवन, सुमनों की सुगन्ध पाने को, डोल रहा है कानन-कानन, नटखट-निडर, रसिक सन्यासी, झूम रहा बनकर मतवाला। अक्षर-अक्षर मिलकर ही तो, बनती है शब्दों की माला।। -- |
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बुधवार, 15 मई 2024
गीत "झूम रहा बनकर मतवाला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मंगलवार, 14 मई 2024
गीत "डोर तुम्हारे हाथो में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- आसमान का छोर, तुम्हारे
हाथो में। कनकइया की डोर तुम्हारे हाथो में।। -- लहराती-बलखाती, पेंग
बढ़ाती है, नीलगगन में ऊँची उड़ती जाती है, होती भावविभोर तुम्हारे हाथो में। कनकइया की डोर तुम्हारे हाथो में।। -- वसुन्धरा की प्यास बुझाती है गंगा, पावन गंगाजल करता तन-मन चंगा, सरगम का मृदु शोर तुम्हारे हाथों में।। कनकइया की डोर तुम्हारे हाथो में।। -- उपवन में कलिकाएँ जब मुस्काती हैं, भ्रमर-भ्रामरी को तब महक सुहाती है, इस जीवन की भोर तुम्हारे हाथों में। कनकइया की डोर तुम्हारे हाथो में।। -- प्रणय-प्रेम के बिना अधूरी पावस है, बिन “मयंक” के
छायी घोर अमावस है, चन्दा और चकोर तुम्हारे हाथो में। कनकइया की डोर तुम्हारे हाथो में।। -- |
सोमवार, 13 मई 2024
ग़ज़ल "फूल हैं हम तो खिलते जायेंगे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- अपनी फितरत बदल न
पायेंगे फूल हैं हम तो खिलते
जायेंगे -- आप आयें न आयें गुलशन
में हम तो खुशबू सदा
लुटायेंगे -- मौन होकर भी गीत गाते
हैं हम रवायत नई चलायेंगे -- हमने वादा किया है
भँवरों से दोस्ती की रसम निभायेंगे -- हम तो काँटों की गोद में
बैठे जख्म खाकर भी खिलखिलायेंगे -- कद्र जो भी हमारी करते
हैं उनके दिल में जगह बनायेंगे -- 'रूप' की बात जब चलेगी कभी याद तब हम जरूर आयेंगे -- |
रविवार, 12 मई 2024
दोहे "माँ का प्यारा हाथ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
-- होता है धन-माल से, कोई नहीं सनाथ।। सिर पर होना चाहिए, माता जी का हाथ।। -- जिनके सिर पर है नहीं, माँ का प्यारा हाथ। उन लोगों से पूछिए, कहते किसे अनाथ।। -- लालन-पालन में दिया, ममता और दुलार। बोली-भाषा को सिखा, करती माँ उपकार।। -- जगदम्बा के रूप में, रहती है हर ठाँव। माँ के आँचल में सदा, होती सुख की छाँव।। -- सुख-दुख दोनों में रहे, कोमल और उदार। कैसी भी सन्तान हो, माँ देती है प्यार।। -- होता माता के बिना, यह संसार-असार। एक साल में एक दिन, माता का क्यों वार।। -- करते माता-दिवस का, क्यों छोटा आकार। प्रतिदिन करना चाहिए, माँ से प्यार अपार।। -- |
गीत "मन बूढ़ा नहीं होने पाये" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
उगता सूरज रोज सुबह को, और शाम को ढलता
जाये। तन पर भले बुढ़ापा आये, मन बूढ़ा नहीं
होने पाये।। पंछी उड़ते नील गगन में, दिन ढलने पर वापिस आते, संग्रह करना नहीं अन्न का, जग को सीख यही सिखलाते, बगिया बौराने पर कोकिल, पंचम सुर में राग
सुनाये। तन पर भले बुढ़ापा आये, मन बूढ़ा नहीं
होने पाये।1। पगडण्डी जीवन-चर्या की, कभी सरल है कभी वक्र है, आवागमन नहीं रुकता है, चलता रहता समय-चक्र है, आशा-शोभा घटे न उसकी, जो नियमों पर चलता
जाये। तन पर भले बुढ़ापा आये, मन बूढ़ा नहीं
होने पाये।2। भटक न जाना स्वप्न-जाल में, सपने मन को भरमाते हैं. जीवन का कुछ सत्य और है, अनुभव दर्शन समझाते हैं, कृषक वही जो पकी फसल को, खलिहानों से घर
में लाये। तन पर भले बुढ़ापा आये, मन बूढ़ा नहीं
होने पाये।3। हिल-मिलकर होली को खेलें, दीवाली में दीप जलाएँ, हिन्दू-मुस्लिम सिख-ईसाई, भाईचारे को अपनाएँ, पवन बसन्ती सुख सरसाये, दुख की कभी न बदली
छाये, तन पर भले बुढ़ापा आये, मन बूढ़ा नहीं
होने पाये।4। कभी अमावस कभी चाँदनी, रूप-रंग पर दर्प न करना, मन का उपवन नित्य सींचना, निर्मल जल से गागर भरना, उजड़ा गुलशन रास न आता, हरा-भरा परिवेश
लुभाये। तन पर भले बुढ़ापा आये, मन बूढ़ा नहीं होने पाये।5। |
शनिवार, 11 मई 2024
ग़ज़ल "वक्त के कमाल हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- बेबसी के साथ में जुड़े हुए सवाल हैं जगह-जगह देश में मचे हुए बवाल है।1। -- भाव उनको क्या पता हाट में गये न जो हो गये गरीब के आज तंग हाल हैं।2। -- आफताब बेरहम उगल रहा है आग को तप रही जमीन है सूख रहे ताल हैं।3। -- बोतलों में आजकल पेय जल है बिक रहा जीव-जन्तु प्यास से हो रहे निढाल हैं।4। -- बादशाह की जिन्हें मिल रही पनाह हो कर रहे वतन में वो खूब गोलमाल हैं।5। -- पक रहे कबाब हैं पल रहे कसाब हैं बिन छुरी के बकरियाँ हो रही हलाल हैं।6। -- किस्मतें
कबूतरों की बाज के हैं हाथ में बहेलिया बिछा रहा जंगलों में जाल हैं।7। -- शोर-गुल धमाल से शेर हैं सहम रहे गीदड़ों की हो रही चश्म लाल-लाल हैं।8। -- रंग वो नहीं रहा 'रूप' में न नूर है उतार और चढ़ाव तो वक्त के कमाल हैं।9। -- |
शुक्रवार, 10 मई 2024
ग़ज़ल "मत जफाएँ याद कर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- हो सके तो आज कुछ उनकी वफाएँ याद कर भूल जा शिकवे-शिकायत मत जफाएँ याद कर -- आरजू की शम्मा को बुझने न देना आदमी नन्हें दिये के हौसले की कुछ अदाएँ याद
कर -- इश्क की परवाज में चलती तिजारत है नहीं दिल के मकां में गूँजती दिलकश सदाएँ
याद कर -- प्यार है तो पालकी ढोनी पड़ेगी यार की खुशनुमां उस सफर की ठण्डी हवाएँ याद कर -- खाई जो कसमें उन्हें ईमानदारी से निभा कश्तियों की मस्तियोंवाली फिजाएँ याद कर -- दौलते-दुनिया में तू मगरूर होना मत कभी मुफलिसी के दौर की कुछ इब्दताएँ याद कर -- चार दिन की है जवानी 'रूप' ढल
ही जायेगा नेमतें पाकर खुदा की अब अताएँ यादकर -- |
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