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बुधवार, 30 नवंबर 2022
मंगलवार, 29 नवंबर 2022
दोहे "माँग रहे हैं वोट" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- वोट
माँगने के लिए, बन बैठे इंसान। नगर
गाँव की राह में, भटक रहे शैतान।। -- याचक
बनकर द्वार पर, माँग रहे हैं वोट। जनसेवा
के नाम पर, नीयत में है खोट।। -- झाड़ू
को पग-पग कहीं कमल रहा ललकार। भिक्षा
की इस होड़ में, हाथ हुआ लाचार।। -- चुने
कौन से चिह्न को, असमंजस में लोग। देखे
किसके भाग में, बनता है संयोग।। -- खर्च
करोड़ों कर रहे, लोभी भाषणवीर। लगा
रहे हैं दाँव पर, सब अपनी तकदीर।। -- सोच-समझकर
कीजिए, अपने मत का दान। करना
सिंह-सियार की, धीरज से पहचान।। -- |
सोमवार, 28 नवंबर 2022
दोहे "एक पाँच दो का टका, है कितना मजबूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- दस्सी-पंजी-चवन्नी, हुई चलन से दूर। एक पाँच दो का टका, है कितना मजबूर।। -- जब
से आया चलन में, दो हजार का नोट। बढ़ती महँगाई रही, तब से हृदय कचोट।। -- छोटी-छोटी
बात-बात पर, होती है तकरार। धन-दौलत
के खेल में, आज खो गया प्यार।। -- झगड़ा
है धन के लिए, अब अपनों के बीच। नदियों
में अब आ गयी, मैली-मैली कीच।। -- हरे-भरे
परिवेश से, नहीं किसी को प्यार। बगिया-आँगन
खेत का, सिमट रहा आकार।। -- पेड़
घट रहे भूमि से, बढ़ता जाता ताप। अवश-विवश
हम झेलते, पीड़ा को चुपचाप।। -- देख
रीत संसार की, मन हो रहा उदास। धन-दौलत
तो पास है, मगर नहीं उल्लास।। -- |
रविवार, 27 नवंबर 2022
दोहे "याचक है मजबूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- न्यायव्यवस्था
से नहीं, मिलता आज सुकून। मुजरिम
को अच्छा लगे, देरतलब कानून।। -- लोकतन्त्र
में न्याय का, सपना चकनाचूर। अपराधी
के सामने, याचक है मजबूर।। -- धनबल-तनबल-राजबल, जन-गण
रहे पछाड़। बच
जाते मक्कार भी, लेकर शक की आड़।। -- मोटी
रकम डकार कर, करते बहस वकील। गद्दारों
के पक्ष में, देते तर्क दलील।। -- उपवन-कानन
खेत में, फैल रही विष-बेल। हत्या-लूट
बलात का, चलता जग में खेल। -- बन्धन
में हैं लड़कियाँ, लड़के हैं आजाद। बेटी
की इस देश में, कौन सुने फरियाद।। -- माँ-बहनों
के रूप की, लगती बोली आज। बढ़ते
भ्रष्टाचार से, दूषित हुआ समाज।। -- |
शनिवार, 26 नवंबर 2022
गीत "अलग सा लिखो अब गजल-गीत में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
धन-गुणा-भाग
से काम चलता नहीं, दिल
के जज्बात शामिल करो प्रीत में। सिर्फ
तुकबन्दियाँ काम आती नहीं, कुछ
अलग सा लिखो अब गजल-गीत में।। कुछ
कमी है नहीं साधना तो करो, नागरी-भारती
में भरा कोश है, छन्द-नवरस
अलंकार के भेद हैं, हास्य
के साथ इसमें करुण-जोश है, गीत
लगते अधूरे बिना राग के, बाँध
लो यत्न से साज-संगीत में। कुछ
अलग सा लिखो अब गजल-गीत में।। है
मिलावट बहुत ज्ञान के नाम पर, रीतियों-नीतियों
में सियासत भरी, रात
है प्रात सी दिन में तारे उगे, देख
बाजीगरी मौन कारीगरी, स्वाद
है अब नहीं दूध-नवनीत में कुछ
अलग सा लिखो अब गजल-गीत में।। चक्र
रुकता नहीं है समय का कभी, जिन्दगी
को हमेशा जियो शान से, मुश्किलों
से न घबराना ओ आदमी! कोष
घटता नहीं है कभी दान से, इक
अनोखा सा आनन्द मिलता हमें, हार
देती मजा जब कभी जीत में। कुछ
अलग सा लिखो अब गजल-गीत में।। प्यार
करना सरल है निभाना कठिन, मत
हँसी-खेल समझो कभी प्यार को, पान
करता गरल का स्वयंभू शिवा, थामता
गंग की वो अगम धार को कर्म
लिखता हमेशा से तकदीर को, जी
रहा है जगत आज तक रीत में। कुछ
अलग सा लिखो अब गजल-गीत में।। |
शुक्रवार, 25 नवंबर 2022
पाँच क्षणिकाएँ "किसे अच्छी नहीं लगती" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पाँच
क्षणिकाएँ (१) सोने
की चमक चाँदी
की दमक सिक्कों
की खनक किसे
अच्छी नहीं लगती -- (२) खादी
की ललक श्यामल
अलक कुर्सी
की झलक किसे
अच्छी नहीं लगती -- (३) अपनी
मैया चैन
की शैया सजी
हुई नैया किसे
अच्छी नहीं लगती -- (४) घर
में खुशहाली धनतेरस
और दिवाली शाम
मतवाली किसे
अच्छी नही लगती -- (५) सूरज
की लाली चाय
की प्याली सजी
हुई घरवाली किसे
अच्छी नहीं लगती -- |
गुरुवार, 24 नवंबर 2022
दोहे "बे-पेंदे के पात्र" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- गरजे तो, बरसे नहीं, किया दिखावा मात्र। उल्लू सीधा कर रहे, बे-पेंदे के पात्र।। -- सुनकर मीठी बात को, बनना नहीं उलूक। यथायोग ही कीजिए, शठ के साथ सुलूक।। -- रूप-रंग गुण-ज्ञान के, जो हों मद में चूर। साधारण को चाहिए, उनसे रहना दूर।। -- बेर-केर का साथ में, होता नहीं निभाव। जीत गयी टेढ़ी नजर, हारा सरल सुभाव।। -- मतलब क्या उस मेल का, जब मन में हो मैल। लीक छोड़ चलना नहीं, ओ कोल्हू के बैल।। -- बैरी की करना नहीं, बार-बार मनुहार। घर जाकर मक्कार के, मत बाँटो उपहार।। -- थूक-थूककर चाटते, उनका क्या आधार। जंगल में जनतन्त्र के, रँगे हुए हैं स्यार।। -- |
बुधवार, 23 नवंबर 2022
गीत "जीवन-चक्र" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
-- अपने छोटे से जीवन में कितने सपने देखे मन में -- इठलाना-बलखाना सीखा हँसना और हँसाना सीखा सखियों के संग झूला-झूला मैंने इस प्यारे मधुबन में कितने सपने देखे मन में -- भाँति-भाँति के सुमन खिले थे आपस में सब हिले-मिले थे प्यार-दुलार दिया था सबने बचपन बीता इस गुलशन में कितने सपने देखे मन में -- एक समय ऐसा भी आया जब मेरा यौवन गदराया विदा किया बाबुल ने मुझको भेज दिया अनजाने वन में कितने सपने देखे मन में -- मिला मुझे अब नया बसेरा नयी शाम थी नया सवेरा सारे नये-नये अनुभव थे अंजाने से इस आँगन में कितने सपने देखे मन में -- कुछ दिन बाद चमन फिर महका बिटिया आयी, जीवन चहका चहका लेकिन करनी पड़ी विदाई भेज दिया नूतन उपवन में कितने सपने देखे मन में -- नारी की तो कथा यही है आदि काल से प्रथा रही है पली कहीं तो, फली कहीं है दुनिया के उन्मुक्त गगन में कितने सपने देखे मन में -- |
मंगलवार, 22 नवंबर 2022
ग़ज़ल "आदमी मजबूर है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- राह
है काँटों भरी, मंजिल बहुत ही दूर है देख
कुदरत का करिश्मा, आदमी मजबूर है -- है
हवाओं में जहर, आतंक का बरपा कहर आजकल
का आदमी, कितना नशे
में चूर है -- आशिकी में के खेल में, ऐसी दगाबाजी मिली प्यार की दीवानगी में, लुट गया सब नूर है -- नेह
के बिन तोड़ता दम, भाईचारे का दिया देश-दुनिया
में भरी, अब नफरतें
भरपूर है -- इंसानियत
की हो हिफाजत, अब यहाँ कैसे भला वादियों
में मौत का, अब बन गया दस्तूर है -- अमन
के नारे चमन से, हो गये हैं अलविदा शायरी के नाम पर, शायर हुए मगरूर है बिक
रही है आज अस्मत, 'रूप' के बाजार में, सभ्यता
मेरे वतन की, आज चकनाचूर है -- |
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