-- दोहन पेड़ों का हुआ, नंगे हुए पहाड़। नगमग
करते शैल से, बस्ती हुई उजाड़।। -- पिघल
रहे हैं ग्लेशियर, दरक रहे हैं शैल। खेत-गाँव
से हो गये, गायब अब हल-बैल।। -- बिरुओं
को मिलता नहीं, नेह-नीर अनुकूल। उपवन
में कैसे खिलें, सुन्दर-सुन्दर फूल।। -- आवारा
बादल हुए, नभ पर अब घनघोर। चीर
द्रोपदी का किशन, खींच रहे चितचोर।। -- पढ़-लिखकर
भूगोल को, भूल गये इतिहास। दुनिया
में होने लगा, मानवता का ह्रास।। -- बेमौसम
खिलने लगे, फूल कनेर-पलाश। नयी
सभ्यता ने किया, जग का सत्यानाश।। -- आवारा
भँवरे हुए, सुमन हुए भयभीत। असमंजस
में हैं पड़े, किसे बनायें मीत।। |
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शनिवार, 10 दिसंबर 2022
दोहे "दरक रहे हैं शैल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आज की दुनिया का अहसास कराते सुंदर शिक्षापद्र दोहे।
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-12-22} को "दरक रहे हैं शैल"(चर्चा अंक 4625) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
प्रकृति के प्रति जागरूकता उत्पन्न करते सुन्दर दोहे ।
जवाब देंहटाएंआवारा भँवरे हुए, सुमन हुए भयभीत।
जवाब देंहटाएंअसमंजस में हैं पड़े, किसे बनायें मीत
वाह!!!
बहुत सटीक एवं लाजवाब।
प्रणाम शास्त्री जी, बहुत खूब लिखा...बिरुओं को मिलता नहीं, नेह-नीर अनुकूल।
जवाब देंहटाएंउपवन में कैसे खिलें, सुन्दर-सुन्दर फूल।।...अति सुंदर
सुंदर दोहे
जवाब देंहटाएं