-- फिर से कुहरा छा गया, आसमान में आज। आवाजाही थम गयी, पिछड़ गये सब काज।। खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप। उपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।। तेज घटा जब सूर्य का, हुई लुप्त सब धूप। वृद्धावस्था में कहाँ, यौवन जैसा रूप।। बिना धूप के निखरता, नहीं किसी का रूप। जड़, जंगल और जीव को, जीवन देती धूप।। भँवरा गुनगुन कर रहा, तितली करती नृत्य। खुश होकर करते सभी, अपने-अपने कृत्य।। दुनिया एक सराय है, लोग यहाँ महमान। राह सरल हो जायगी, कम रखना सामान।। नहीं मान-अपमान की, चिन्ता करना मित्र। जिसमें तुम रँग भर सको, वही बनाना चित्र।। राह जटिल कुछ भी नहीं, तज देना अभिमान। माँगे से मिलता नहीं, दुनिया में सम्मान।। अनुभव अपने बाँटिए, सुधरेगा परिवेश। नवयुग को दे दीजिए, जीवन के सन्देश।। महादेव बन जाइए, करके विष का पान। धरा और आकाश में, देंगे सब सम्मान।। धोखा देता जगत में, आकर्षक परिधान। रहता सत्तर साल में, कोई नहीं जवान।। प्रजातन्त्र का सिरफिरे, भूल गये हैं अर्थ। सर्व धर्म समभाव से, बनता देश समर्थ।। |
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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022
दोहे "जीवन देती धूप" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अनुभव अपने बाँटिए, सुधरेगा परिवेश।
जवाब देंहटाएंनवयुग को दे दीजिए, जीवन के सन्देश।।
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महादेव बन जाइए, करके विष का पान।
धरा और आकाश में, देंगे सब सम्मान।।
.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
बहुत सुंदर रचना 👌👌
जवाब देंहटाएंआदरणीय डॉ साहब , प्रणाम !
जवाब देंहटाएंनहीं मान-अपमान की, चिन्ता....वही बनाना चित्र।।
राह जटिल ... तज देना अभिमान।माँगे से मिलता नहीं, दुनिया में सम्मान।।
राह दिखाती रचना को सादर नमन !
अभिनन्दन ! मैरी क्रिसमस ! जय भारत ! जय भारती !!