-- अमलतास के पीले गजरे, झूमर से लहराते हैं। लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।। -- ये मौसम की मार, हमेशा खुश हो कर सहते हैं, दोपहरी में क्लान्त पथिक को, छाया देते रहते हैं, सूरज की भट्टी में तपकर, कंचन से हो जाते हैं। लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।। -- उछल-कूद करते मस्ती में, गिरगिट और गिलहरी भी, वासन्ती आभास कराती, गरमी की दोपहरी भी, प्यारे-प्यारे सुमन प्यार से, आपस में बतियाते हैं। लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।। -- लुभा रहे सबके मन को, जो आभूषण तुमने पहने, अमलतास तुम धन्य, तुम्हें कुदरत ने बख्शे हैं गहने, सड़क किनारे खड़े तपस्वी, अभिनव “रूप”
दिखाते हैं। लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।। -- |
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बुधवार, 12 अप्रैल 2023
गीत "अमलतास के गजरे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अमलतास की बात ही निराली है
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (13-4-23} को ज़िंदगी इक सफ़र है सुहाना" (चर्चा अंक 4654)" पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा