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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009
इन पहाड़ों में बसे कुछ प्राण भी हैं।(डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
इन पहाड़ों में बसे कुछ प्राण भी हैं।।
प्रस्तरों में भी हृदय है, प्रस्तरों में भी दया है।
चीड़ का परिवार, इनके अंक में ही बस गया है।
गोद में बैठे हुए, किस प्यार से अधिकार से।
साल के छौने किलोलें,कर रहे दे(देव)-दार से।
कंकड़ों और पत्थरों के ढेर पर।
गगनचुम्बी कोण जैसे पेड़ पर।
सेव, काफल, नाशपाती से,रसीले फल उगे हैं।
जो मनुज की भूख,निर्बलता मिटाने में लगे हैं।
मात्र ये प्रहरी नही परित्राण भी हैं।
इन पहाड़ों में बसे कुछ प्राण भी हैं।।
पत्थरों में बिष्ट, ओली और टम्टा रह रहे हैं।
सरलता, ईमानदारी ,मूक चेहरे कह रहे हैं।
पत्थरों के देवता हैं,पत्थरों के घर बने हैं।
पत्थरों में पक्षियों के,घोंसले सुन्दर घने हैं।
पत्थरों में प्राण भी हैं,और हैं, पाषाण भी।
पत्थरों में आदमी हैं,और हैं भगवान भी।
मात्र ये कंकड़ नही,कल्याण भी हैं।
इन पहाड़ों में बसे,कुछ प्राण भी हैं।।
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पहाड़ का सुंदर चित्रण. साधुवाद. इन पंक्तियों को कोई उत्तराखंडी ही आत्मसात कर सकता है-
जवाब देंहटाएंपत्थरों में बिष्ट, ओली और टम्टा रह रहे हैं।
सरलता, ईमानदारी ,मूक चेहरे कह रहे हैं।
शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंआपने उत्तराखण्ड के पवृतीय जीवन का सुन्दर चित्रण किया है।
आशा है पहाड़ पर कुछ और भी पढ़ने का सौभाग्य देंगे।
पत्थरों में प्राण भी हैं,और हैं, पाषाण भी।
जवाब देंहटाएंपत्थरों में आदमी हैं,और हैं भगवान भी।
वाह...पहाडों का सजीव चित्रण....
नीरज
रोज़ नयी-नयी कविताएँ पढ़ने को मिल रही हैं , अच्छा लग रहा है! कभी लखनऊ तो मेरे घर ज़रूर आयें, आपका सदैव स्वागत रहेगा!
जवाब देंहटाएं---
चाँद, बादल और शाम
आपकी यह कविता सही बात कह रही है।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती