घर-आँगन वो बाग सलोने, याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
जब हम गर्मी में की छुट्टी में, रोज नुमाइश जाते थे
इस मेले को दूर-दूर से, लोग देखने आते थे
सर्कस की वो हँसी-ठिठोली, भूल नहीं पाये अब तक
जादू-टोने, जोकर-बौने, याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
शादी हो या छठी-जसूठन, मिलकर सभी मनाते थे
आस-पास के लोग प्रेम से, दावत खाने आते थे
अब कितना बदलाव हो गया, अपने रस्म-रिवाजो में
दावत के वो पत्तल-दोने याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
कभी-कभी हम जंगल से भी, सूखी लकड़ी लाते थे
उछल-कूद कर वन के प्राणी, निज करतब दिखलाते थे
वानर-हिरन-मोर की बोली, गूँज रही अब तक मन में
जंगल के निश्छल मृग-छौने याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
लुका-छिपी और आँख-मिचौली, मन को बहुत लुभाते थे
कुश्ती और कबड्डी में, सब दाँव-पेंच दिखलाते थे
होले भून-भून कर खाते, खेत और खलिहानों में
घर-आँगन के कोने-कोने याद बहुत आते हैं
बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017
गीत "याद बहुत आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रविवार, 29 अक्टूबर 2017
गीत "आँखों के बिन जग सूना है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आशा और निराशा की जो,
पढ़ लेते हैं सारी भाषा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
दुख के बादल आते ही ये,
खारे जल को हैं बरसाते।
सुख का जब अनुभव होता है,
तब ये फूले नहीं समाते।
सरल बहुत हैं-चंचल भी हैं,
इनके भीतर भरी पिपासा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
कुछ में होती है खुद्दारी,
कुछ में होती है मक्कारी।
कुछ ऐसी भी आँखें होती,
जिनमें होती है गद्दारी।
ऐसी बे-ग़ैरत आँखों से,
मन में होती बहुत हताशा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
दुनिया भर की सरिताओं का,
इसमें आकर पानी ठहरा।
लहर-लहरकर लहरें उठतीं,
ये भावों का सागर गहरा।
बिन आँखों के जग सूना है,
ये जीवन की हैं अभिलाषा।
दो नयनों में ही होती हैं,
दुनिया की पूरी परिभाषा।।
|
शनिवार, 28 अक्टूबर 2017
गीत "उल्फत के ठिकाने खो गये हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कल नये थे अब पुराने हो गये हैं।
पेड़ जंगल के सयाने हो गये हैं।।
वक्त की रफ्तार ने जीना सिखाया,
जिन्दगी ने व्याकरण को है भुलाया,
प्यार-उल्फत के ठिकाने खो गये हैं।
अब तरानों में नहीं वो आग है,
सुर नहीं, बस बेसुरा सा राग है,
चहकते नक्कारखाने सो गये हैं।
शब्द बदले और कोमल भाव बदले,
अर्थ बदले, प्रीत के अनुभाव बदले,
चूर सपने सब सुहाने हो गये हैं।
स्वार्थ के रँग में रँगे अनुबन्ध हैं,
बस दिखावे के लिए सम्बन्ध हैं,
“रूप” अपने भी बिराने हो गये हैं।
|
शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017
ग़ज़ल "ज़िन्दगी इक खूबसूरत ख़्वाब है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ज़िन्दगी इक खूबसूरत ख़्वाब है
रात में उगता हुआ माहताब है
था कभी ओझल हुआ जो रास्ता
अब नज़र आने लगा मेहराब है
आसमां से छँट गयीं अब बदलियाँ
अब खुशी का आ गया सैलाब है
पत्थरों में प्यार का ज़ज़्बा बढ़ा
अब बगीचे में ग़ुलों पर आब है
फूल पर मँडरा रहा भँवरा रसिक
एक बोसे के लिए बेताब है
शाम ढलने पर कुमुद हँसने लगे
भा रहा कीचड़ भरा तालाब है
रोज़ आती रौशनी की रश्मियाँ
ख़्वाब का ये “रूप” भी नायाब है
|
गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017
दोहे "छठ का है त्यौहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
छठपूजा का
आ गया, फिर पावन त्यौहार।
माता जन-गण के हरो, अब तो सभी विकार।।
लोग छोड़कर
आ गये, अपने-अपने नीड़।
सरिताओं के
तीर पर, लगी हुई है भीड़।।
अस्तांचल
की ओर जब, रवि करता प्रस्थान।
छठ पूजा पर
अर्घ्य तब, देता हिन्दुस्थान।।
परम्पराओं पर
टिका, सारा कारोबार।
मान्यताओं
में है छिपा, जीवन का सब सार।।
षष्टी मइया
सभी का, करती बेड़ा पार।
माता ही
सन्तान को, करती प्यार अपार।।
छठपूजा के
दिवस पर, कर लेना उपवास।
अन्तर्मन
से कीजिए, माता की अरदास।।
उदित-अस्त
रवि को सदा, अर्घ्य चढ़ाना नित्य।
देता है जड़-जगत
को, नवजीवन आदित्य।।
कठिन
तपस्या के लिए, छठ का है त्यौहार।
व्रत पूरा
करके करो, ग्रहण शुद्ध आहार।।
पूर्वांचल
से हो गया, छठ माँ का उद्घोष।
दुनियाभर
में किसी का, रहे न खाली कोष।।
|
बुधवार, 25 अक्टूबर 2017
दोहे "धन का खुल्ला खेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जात-धर्म के जाल में, जकड़ा हिन्दुस्तान।।
--
लुप्त हो गये आज तो, आपस के सम्बन्ध।
सम्बन्धों के नाम पर, होते हैं अनुबन्ध।।
--
मर्यादा को सदा ही, मिलता है वनवास।
माला कैसे अब बने, मनके हुए उदास।।
--
लोकतन्त्र के नाम पर, पाया जंगलराज।
आजादी तो मिल गयी, आया नहीं सुराज।।
--
उपवन में बढ़ने लगी, अब तो विष की बेल।
मतलब के ही है लिए, आपस में सब मेल।।
--
बलशाली की यातना, लोग रहे हैं झेल।
निर्वाचन में हो रहा, धन का खुल्ला खेल।।
--
भूल गये हैं अब सभी, गौरव और गुमान।
मात-पिता, आचार्य का, होता है अपमान।।
|
मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017
गीत "बुखार ही बुखार है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
नशा है चढ़ा हुआ, खुमार ही खुमार है।
तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।।
मुश्किलों में हैं सभी, फिर भी धुन में मस्त है,
ताप के प्रकोप से, आज सभी ग्रस्त हैं,
आन-बान, शान-दान, स्वार्थ में शुमार है।
तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।।
हो गये उलट-पलट, वायदे समाज के,
दीमकों ने चाट लिए, कायदे रिवाज़ के,
प्रीत के विमान पर, सम्पदा सवार है।
तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।।
अंजुमन पे आज, सारा तन्त्र है टिका हुआ,
आज उसी वाटिका का, हर सुमन बिका हुआ,
गुल गुलाम बन गये, खार पर निखार है।
तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।।
झूठ के प्रभाव से, सत्य है डरा हुआ,
बेबसी के भाव से, आदमी मरा हुआ,
राम के ही देश में, राम बेकरार है।
तन-बदन में आज तो, बुखार ही बुखार है।।
|
सोमवार, 23 अक्टूबर 2017
दोहे "दो आँखों की रीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कुदरत ने हमको दिया, आँखों का उपहार।।
--
आँखें नश्वर देह का, बेशकीमती अंग।
बिना रौशनी के लगे, सारा जग बेरंग।।
--
मिल जाती है आँख जब, तब आ जाता चैन।
गैरों को अपना करें, चंचल चितवन नैन।।
--
दुनिया में होती अलग, दो आँखों की रीत।
होती आँखें चार तो, बढ़ जाती है प्रीत।।
--
पोथी में जिनका नहीं, कोई भी उल्लेख।
आँखें पढ़ना जानती, वो सारे अभिलेख।।
--
माता-पत्नी-बहन से, कैसा हो व्यवहार।
आँखें ही पहचानतीं, रिश्तों का आकार।।
--
सम्बन्धों में हो रहा, कहाँ-कहाँ व्यापार।
आँखों से होता प्रकट, घृणा और सत्कार।।
|
रविवार, 22 अक्टूबर 2017
गीत "गुरूनानक का दरबार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 21 अक्टूबर 2017
दोहे भइयादूज "पावन प्यार-दुलार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
यज्ञ-हवन करके बहन, माँग रही वरदान।
भइया का यमदेवता, करना तुम कल्याण।।
--
भाई बहन के प्यार का, भइया-दोयज पर्व।
अपने-अपने भाई पर, हर बहना को गर्व।।
--
तिलक दूज का कर रहीं, सारी बहनें आज।
सभी भाइयों के बने, सारे बिगड़े काज।।
--
रोली-अक्षत-पुष्प का, पूजा का ले थाल।
बहन आरती कर रही, मंगल दीपक बाल।।
--
एक बरस में एक दिन, आता ये त्यौहार।
अपनी रक्षा का बहन, माँग रही उपहार।।
--
जब तक सूरज-चन्द्रमा, तब तक जीवित प्यार।
दौलत से मत तोलना, पावन प्यार-दुलार।।
|
गीत "भइया दूज का तिलक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज भइया दूज के पावन अवसर पर अपना एक पुराना गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ! |
शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2017
दोहे "माटी के ये दीप" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गीत "भाईदूज के अवसर पर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
|
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि ...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...