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गघे नहीं खाते जिसे, तम्बाकू वो चीज।
खान-पान की मनुज को, बिल्कुल नहीं तमीज।।
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रोग कैंसर का लगे, समझ रहे हैं लोग।
फिर भी करते जा रहे, तम्बाकू उपयोग।।
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खैनी-गुटका-पान का, है हर जगह रिवाज।
गाँजा, भाँग-शराब का, चलन बढ़ गया आज।।
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तम्बाकू को त्याग दो, होगा बदन निरोग।
जीवन में अपनाइए, भोग छोड़कर योग।।
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पूरब वालो छोड़ दो, पश्चिम की सब रीत।
बँधा हुआ सुर-ताल से, पूरब का संगीत।।
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खोलो पृष्ठ अतीत के, आयुध के संधान।
सारी दुनिया को दिया, भारत ने विज्ञान।।
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जगतगुरू यह देश था, देता जग को ज्ञान।
आज नशे की नींद में, सोया चादर तान।।
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"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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रविवार, 31 मई 2020
दोहे "तम्बाकू निषेध दिवस पर सन्देश" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शनिवार, 30 मई 2020
दोहे "पत्रकारिता दिवस" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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पत्रकारिता दिवस पर, होता है अवसाद।
गुणा-भाग तो खूब है, मगर नहीं गुणवाद।।
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पत्रकारिता में लगे, जब से हैं मक्कार।
छँटे हुओं की नगर के, तब से है जयकार।।
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समाचार के नाम पर, ब्लैकमेल है आज।
विज्ञापन का चल पड़ा, अब तो अधिक रिवाज।।
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पीड़ा के संगीत में, दबे खुशी के बोल।
देश-वेश-परिवेश में, कौन रहा विष घोल।।
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बैरी को तो मिल गये, घर बैठे जासूस।
सच्ची खबरों के लिए, देनी पड़ती घूस।।
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ख़बरें अब साहित्य की, हुई पत्र से लुप्त।
सामाजिकता हो रही, इसीलिए तो सुप्त।।
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मिर्च-मसाला झोंक कर, छाप रहे अखबार।
हत्या और बलात् की, ख़बरों की भरमार।।
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पड़ी बेड़ियाँ पाँव में, हाथों में जंजीर।
सच्चाई की हो गयी, अब खोटी तकदीर।।
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ग़ज़ल "इंसानियत का रूप" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मदहोश निगाहें हैं, खामोश तराना है
मासूम परिन्दों को, अब नीड़ बनाना है
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सूखे हुए शजरों ने, पायें हैं नये पत्ते
बुझती हुई शम्मा को, महफिल में जलाना है
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कुछ करके दिखाने का, अरमान हैं दिलों में
उजड़ी हुई दुनिया को, अब फिर से बसाना है
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हिंसा की चल रहीं हैं, चारों तरफ हवाएँ
आतंक की आँधी को, अब दूर भगाना है
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फिरकापरस्त होना, मज़हब नहीं सिखाता
बन्धन को काट करके, अब धर्म सिखाना है
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इस मादरे-वतन को, मक़्तल की जरूरत क्या
अब पाठ अहिंसा का, मक़तब में पढ़ाना है
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इंसान आजकल का, हैवान बन गया है
इंसानियत का हमको, अब “रूप” दिखाना है
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गुरुवार, 28 मई 2020
गीत "ख़ाक सड़कों की अभी तो छान लो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ख़ाक सड़कों की अभी तो छान लो।
धूप में घर को बनाना ठान लो।।
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भावनाओं पर कड़ा पहरा लगा,
दुःख से आघात है गहरा लगा,
मीत इनको ज़िन्दग़ी का मान लो।
धूप में घर को बनाना ठान लो।।
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काल का तो चक्र अब ऐसा चला,
आज कोरोना ने दुनिया को छला,
वेदना के रूप को पहचान लो।
धूप में घर को बनाना ठान लो।।
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रास्तों में धूप है और धूल है,
समय श्रमिकों के लिए प्रतिकूल है,
आदमीयत को जरा सा जान लो।
धूप में घर को बनाना ठान लो।।
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'रूप' तो इक रोज़ ढल ही जायेगा,
आँच में जीवन पिघल ही जायेगा,
दानवों से सभ्यता का ज्ञान लो।
धूप में घर को बनाना ठान लो।।
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दोहे "अमलतास तुम धन्य" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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होती जेठ-अषाढ़ में, जब गरमी भरपूर।
अमलतास के पेड़ पर, तब आ जाता नूर।।
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रवि बरसाता है अनल, बढ़ा धरा का ताप।
सारा जग है झेलता, कुदरत का सन्ताप।।
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लू के झाँपड़ झेल कर, खा सूरज की धूप।
अमलतास का हो गया, सोने जैसा रूप।।
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झूमर जैसे लग रहे, अमलतास के फूल।
छाया देता पथिक को, मौसम के अनुकूल।।
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तन-मन लोगों का हुआ, गरमी से विद्रूप।
किसे रिझाने के लिए, धरा आपने रूप।।
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कंचन जैसा कन्त ने, रूप लिया है धार।
आँखों को अच्छा लगे, नैसर्गिक सिंगार।।
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अमलतास तुम धन्य हो, धन्य तुम्हारा नाम।
शीतलता छाया बाँटते, जग को आठों याम।।
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बुधवार, 27 मई 2020
दोहे "सच्चाई का अंश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जब भी लड़ने के लिए, लहरें हों तैयार।
कस कर तब मैं थामता, हाथों में पतवार।।
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बैरी के हर ख्वाब को, कर दूँ चकनाचूर।
जब अपने हो सामने, हो जाता मजबूर।।
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जब भी लड़ने के लिए, होता हूँ तैयार।
धोखा दे जाते तभी, मेरे सब हथियार।।
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साधन हो पैसा भले, मगर नहीं है साध्य।
हिरती-फिरती छाँव को, मत समझो आराध्य।।
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राज़-राज़ जब तक रहे, तब तक ही है राज़।
बिना छन्द के साज भी, हो जाता नाराज।।
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वाणी में जिनकी नहीं, सच्चाई का अंश।
आस्तीन में बैठ कर, देते हैं वो दंश।।
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बैठे गंगा घाट पर, सन्त और शैतान।
देना सदा सुपात्र को, धन में से कुछ दान।।
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बन्द कभी मत कीजिए, आशाओं के द्वार।
मजबूती से थामना, लहरों में पतवार।।
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लोकतान्त्रिक देश में, कहाँ रहा जनतन्त्र।
गलियारों में गूँजते, जाति-धर्म के मन्त्र।।।
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हँसकर जीवन को जियो, रहना नहीं उदास।
नीरसता को त्याग कर, करो हास-परिहास।।
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आड़ी-तिरछी हाथ में, होतीं बहुत लकीर।
कोई है राजा यहाँ, कोई बना फकीर।।
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सीधे-सादे हों भले, लेकिन चतुर सुजान।
लोग उत्तराखण्ड के, रखते हैं ईमान।।
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सुलगे जब-जब हृदय में, मेरे कुछ अंगार।
तब तुकबन्दी में करूँ, भावों को साकार।।
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मंगलवार, 26 मई 2020
गीत "गरमी का अब मौसम आया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
चहल-पहल सहमी-सहमी है,
गरमी का अब मौसम आया।।
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मलयानिल की बाट जोहते,
नव पल्लव भी मुरझाये हैं।
पीपल, गूलर भी आहत हैं,
युकलिप्टस भी बौराये हैं।।
ओढ़ धूप की धवल चदरिया,
सूरज ने अब रंग दिखाया।
चहल-पहल सहमी-सहमी है,
गरमी का अब मौसम आया।।
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जीव-जन्तु आहत हैं कितने,
चातक-दादुर हैं अकुलाये।
तन-मन को लू ने झुलसाया,
मानसून जाने कब आये।
खेतों में पड़ गई दरारें,
टिड्ढी दल नभ में मँडराया।
चहल-पहल सहमी-सहमी है,
गरमी का अब मौसम आया।।
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झोंपड़ियाँ सहमी-सहमी हैं,
महलों में भी चैन नहीं है।
निष्ठुर हआ दिवाकर दिन में,
सुख की अब तो रैन नहीं है।
सूख गये हैं ताल-सरोवर,
हरियाली का हुआ सफाया।
चहल-पहल सहमी-सहमी है,
गरमी का अब मौसम आया।।
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तपती गरम तवे सी धरती,
सूरज आज जवान हुआ है।
हिमगिरि से हिम पिघल रहा
है,
पागल सा दिनमान हुआ है।
एसी-कूलर फेल हो
गये,
कोरोना ने जाल बिछाया।
चहल-पहल सहमी-सहमी है,
गरमी का अब मौसम आया।।।
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सोमवार, 25 मई 2020
दोहे "कहो मुबारक ईद" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जब तक साँस शरीर में, तब तक है उम्मीद।
दुआ करो अल्लाह से, कहो मुबारक ईद।।
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फोनकॉल-सन्देश से, पूछो हाल-मिजाज।
कोरोना के काल में, घर में पढ़ो नमाज।।
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करना दुआ सलाम ही, गले न मिलना ईद।
मानव मानव ही रहे, रब की है ताकीद।।
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सामाजिक दूरी बना, सीमित करो खरीद।
भाईचारे का सबक, सिखलाती है ईद।।
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आदर हो हर पन्थ का, पढ़ो कुरान-मजीद।
खुशियाँ लेकर आ गयी, मौमिन के घर ईद।।
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सच्चे मन से कीजिए, अपने सब अरकान।
घर-घर नेमत ईद की, लाते हैं रमजान।।
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ईश्वर का पैगाम है, सबके लिए मुफीद।
लाते हैं उल्लास को, होली-क्रिसमस-ईद।।
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रविवार, 24 मई 2020
बालकविता "पेड़ों पर पकती हैं बेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो शिव-शंकर को भाती है
बेल वही तो कहलाती है
तापमान जब बढ़ता जाता
पारा ऊपर चढ़ता जाता
अनल भास्कर जब बरसाता
लू से तन-मन जलता जाता
तब पेड़ों पर पकती बेल
गर्मी को कर देती फेल
इस फल की है महिमा न्यारी
गूदा इसका है गुणकारी
पानी में कुछ देर भिगाओ
घोटो-छानो और पी जाओ
ये शर्बत सन्ताप हरेगा
तन-मन में उल्लास भरेगा
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