सूरज भी करने लगा, दुनिया को बेहाल।
गरमी के कारण हुआ, जीना बड़ा मुहाल।।
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सिर पर रक्खो तौलिया, चेहरे पर रूमाल।
मास्क लगा ढक लीजिए, अपने-अपने गाल।।
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आग बरसती धरा पर, धूप हुई विकराल।
विकल प्यास से हो रहे, वन में विहग मराल।।
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दूर-दूर तक जल नहीं, सहमे झील-तड़ाग।
पानी की अब खोज में, उड़ते नभ में काग।।
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बिजली का संकट बढ़ा, एसी-कूलर बन्द।
पंखा झलकर हाथ का, कहाँ मिले आनन्द।।
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इस गरमी ने मार ने, छीन लिया सुख-चैन।
नहीं पसीना सूखता, तन-मन है बेचैन।।
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पेड़ आज कम हो गये, बढ़ा धरा का ताप।
आज सामने आ गये, जन-मानस के पाप।।
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रविवार, 17 मई 2020
दोहे "गरमी में जीना हुआ मुहाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'गरमी में जीना हुआ मुहाल' (चर्चा अंक 3705) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
संशोधन-
हटाएंआमंत्रण की सूचना में पिछले सोमवार की तारीख़ उल्लेखित है। कृपया ध्यान रहे यह सूचना आज यानी 18 मई 2020 के लिए है।
असुविधा के लिए खेद है।
-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन दोहे
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर दोहे आदरणीय सर.
जवाब देंहटाएं