-- लम्बी-लम्बी
हरी मुलायम। ककड़ी
मोह रही सबका मन।। -- कुछ होती
हल्के रंगों की, कुछ होती हैं बहुरंगी
सी, कुछ होती
हैं सीधी सच्ची, कुछ
तिरछी हैं बेढंगी सी, ककड़ी
खाने से हो जाता, शीतल-शीतल
मन का उपवन। ककड़ी
मोह रही सबका मन।। -- नदी
किनारे पालेजों में, -- आता है
जब मई महीना, ककड़ी
मोह रही सबका मन।। -- |
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शुक्रवार, 31 मई 2024
बालगीत "ककड़ी खाने को करता मन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
गुरुवार, 30 मई 2024
संस्मरण - डॉ.राज किशोर सक्सेना "राज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
डॉ.राज किशोर सक्सेना "राज" खटीमा के वरिष्ठ कवि और राजनीतिक विश्लेषक, मेरे अभिन्न मित्र आदरणीय राज किशोर सक्सेना राज आज हमारे बीच नहीं रहे। डॉ. राज एक जिन्दादिल इंसान थे। वो मेरे पास तीन-चार दिन में या कभी-कभी तो रोज ही आ जाते थे। वो 1-2 घंटा मेरे पास बैठते थे और विभिन्न विषयों पर बेबाकी से बात करते थे। लगभग डेढ़ वर्ष पहले उन्होंने जिज्ञासा प्रकाशन को अपनी दो पुस्तकों के प्रकाशन के लिए 12 हजार रुपये भेज दिये थे। परन्तु उसने पुस्तकें छापकर नहीं भेजी। खैर मैंने अपने प्रभाव का उपयोग करके येन-केन प्रकारेण उनकी एक किताब तो मँगवा दी। लेकिन दूसरी पुस्तक उसने आज तक नहीं भेजी। बात-चीत चल ही रही थी लेकिन काल के क्रूर ग्रास ने उन्हें निगल लिया। उन्हें देखकर यह लगता ही नहीं था कि डॉ.
राज की आयु 80 वर्ष के लगभग हो गयी है। मैं उन्हें अक्सर कहता था कि आप 150 साल
तक जीवित रहेंगे। इस पर वो कहते थे कि कि भाई साहब प्रश्न ज्यादा लम्बी उमर जीने
का नहीं है। बस यही ईश्वर से यही कामना और प्रार्थना कि जब तक जियूँ तब तक किसी
के अधीन न रहूँ और उन्होंने अन्त समय तक भी किसी से सेवा नहीं करवाई। अचानक
हृदयाघात से उनका देहावसान हो गया। अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर वह अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़कर गये हैं। ऐसी पुण्यात्मा को मैं अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। |
बालकविता "आया है तरबूज सुहाना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों...! आज अपनी एक पुरानी बाल कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ! जब गरमी की ऋतु आती है! लू तन-मन को झुलसाती है!! -- तब आता तरबूज सुहाना! ठण्डक देता इसको खाना!! -- यह बाजारों में बिकते हैं! फुटबॉलों जैसे दिखते हैं!! एक रोज मन में यह ठाना! देखें इनका ठौर-ठिकाना!! पहुँचे जब हम नदी किनारे! बेलों पर थे अजब नजारे!! -- कुछ छोटे कुछ बहुत बड़े थे! जहाँ-तहाँ तरबूज पड़े थे!! -- इनमें से था एक उठाया! बैठ खेत में इसको खाया!! इसका गूदा लाल-लाल था! ठण्डे रस का भरा माल था!! -- |
मंगलवार, 28 मई 2024
बालकविता "सबके मन को भाती बेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो शिव-शंकर को भाती है बेल वही तो कहलाती है तापमान जब बढ़ता जाता पारा ऊपर चढ़ता जाता अनल भास्कर जब बरसाता लू से तन-मन जलता जाता तब पेड़ों पर पकती बेल गर्मी को कर देती फेल -- इस फल की है महिमा न्यारी गूदा इसका है गुणकारी पानी में कुछ देर भिगाओ घोटो-छानो और पी जाओ ये शर्बत सन्ताप हरेगा तन-मन में उल्लास भरेगा -- ये भोले शंकर की बेल गरमी को कर देती फेल -- |
सोमवार, 27 मई 2024
कविता "अणलतास के पीले झूमर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तपती
हुई दुपहरी में, झूमर
जैसे लहराते हैं। कंचन
जैसा रूप दिखाते, अमलतास
भा जाते हैं।।
जब
सूरज झुलसाता तन को, आग
बरसती है भूपर। ये
छाया को सरसाते हैं, आकुल
राही के ऊपर।। स्टेशन
और सड़क किनारे, कड़ी
धूप को सहते हैं। लू
के गर्म थपेड़े खा कर, खुलकर
हँसते रहते हैं।। शाखाओं
पर बैठ परिन्दे, मन
ही मन हर्षाते हैं। इनके
पीले-पीले गहने, उनको
बहुत लुभाते हैं।। दुख
में कैसे मुस्काते हैं, ये
जग को बतलाते हैं। सहना
सच्चा गहना होता है, सीख
यही सिखलाते हैं।। -- |
रविवार, 26 मई 2024
दोहे "लोग गये हैं हार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- कहीं किसी भी हाट में, बिकती नहीं तमीज। वैसा ही पौधा उगे, जैसा बोते बीज।। -- करके सभी
प्रयास अब, लोग गये हैं हार। काशी में
अब भी बहे, पतित-पावनी धार।। -- पूरी
ताकत को लगा, चला रहे पतवार। लेकिन
नहीं विपक्ष की, नाव लग रही पार।। -- कृपण बने
खुद के लिए, किया महल तैयार। अपशब्दों
की वो करें, रोज-रोज बौछार।। -- पूर्व
जन्म में किसी का, खाया था जो कर्ज। उसको सूद
समेत अब, लौटाना है फर्ज।। -- |
शनिवार, 25 मई 2024
गीत "बालक अपने प्यारे-प्यारे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--
भूख
बन गई है मजबूरी, हाड़
धुन रहे राजदुलारे। बाल
श्रमिक करते मजदूरी, हालातों
से बालक हारे।। -- आश्वासन
पर देश चल रहा, जन-गण
को सन्देश छल रहा, झूठे
सब सरकारी दावे, इनकी
किस्मत कौन सँवारे। बीन
रहे हैं कूड़ा-कचरा, बालक
अपने प्यारे-प्यारे।। -- टूटे-फूटे
हैं कच्चे घर, नहीं
यहाँ पर, पंखे-कूलर. महलों
को मुँह चिढ़ा रही है, इनकी
झुग्गी सड़क किनारे। बीन
रहे हैं कूड़ा-कचरा, बालक
अपने प्यारे-प्यारे।। -- मिलता
इनको झिड़की-ताना, दूषित
पानी, झूठा खाना, जनसेवक
की सेवा में हैं, अफसर-चाकर
कितने सारे। बीन
रहे हैं कूड़ा-कचरा, बालक
अपने प्यारे-प्यारे।। -- |
शुक्रवार, 24 मई 2024
दोहाग़ज़ल "इज़्ज़त के ह़कदार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
नहीं
समझना ग़ज़ल को, लफ्जों का व्यापार। ज़ज़्बातों
की शायरी, करती दिल पर वार।। बिना
बनावट के जहाँ, होते हैं अल्फाज़, अच्छे
लगते वो सभी, प्यार भरे अशआर। -- मतला-मक़्ता-क़ाफिया, हुए ग़ज़ल से दूर, मातम के
माहौल में, सजते बन्दनवार। -- डूब रही
है आजकल, उथले जल में नाव, छूट गयी
है हाथ से, केवट के पतवार। -- अब कविता
के साथ में, होता है अन्याय, आज क़लम
में है नहीं, वीरों की हुँकार। -- शायर बनकर
आ गये, अब तो सारे लोग, कलियों-फूलों
पर बहुत, होता अत्याचार। -- कृत्रिमता
से किसी का, नहीं दमकता “रूप” चाटुकार-मक्कार
अब, इज़्ज़त के ह़कदार। -- |
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