टिप्पणियाँ मिलती नहीं, ब्लॉग बन गया भार।
लोगों को अब हो गया, मुखपोथी से प्यार।।
--
जालजगत पर बन गये, रावण भी रघुराज।
मुखपोथी पर जम गये, नौसिखिए कविराज।।
--
जिनको छन्दविधान की, कोई नहीं तमीज।
वो भी अब लिखने लगे, कविता जैसी चीज।।
--
वाह-वाह सुनकर यहाँ, मिलता बड़ा सुकून।
अधिक प्रशंसा का नहीं, ज्ञात उन्हें मजमून।।
--
सारहीन वो टिप्पणी, जिसमें मिलती वाह।
सारयुक्त होती वही, जो करती आगाह।।
--
कड़ुआ खा थू-थू करें, मीठा करते गप्प।
अधिक मधुर रस को यहाँ, करो न भइया हप्प।।
--
ज्यादा मीठे माल से, हो जाता मधुमेह।
कभी-कभी तो चाटिए, कुछ तीखा अवलेह।।
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
रविवार, 30 अप्रैल 2017
दोहे "मुखपोथी से प्यार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
शनिवार, 29 अप्रैल 2017
दोहे "बित्ते भर की जीभ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
करते बत्तीस दाँत क्यों, रखवाली दरबान।।
--
अगर लगाई जीभ पर, मन ने नहीं लगाम।
उलटी-ओछी बात से, मच जाता कुहराम।।
--
रसना तो रस के लिए, कर देती मजबूर।
वाणी के ही घाव का, बन जाता नासूर।।
--
जिसने जग में कर लिया, वाणी पर अधिकार।
कर लेंगे उसको सभी, मन से अंगीकार।।
--
बित्ते भर की जीभ से, अपने बनते गैर।
बिना मोल बिन भाव के, हो जाता है बैर।।
--
कोमल है जब जीभ तो, बोलो कोमल बोल।
सम्बन्धों के खेल में, वाणी है अनमोल।।
--
रसना में जिनके नहीं, रस का हो सम्बन्ध।
कुसुम काग़ज़ी हों अगर, कैसे आये गन्ध।।
|
अकविता "पिघलते रहेंगे चेहरे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
लोग
मोम
जैसे बन गये हैं,
चेहरे,
सुबह
को कुछ और है,
परन्तु
शाम
तक,
पिघल
जाते हैं
और
बदसूरत
होकर
वह
अपना
रूप,
आकृति
सब
कुछ बदल लेते हैं
बस
यही तो खेल है
ज़िन्दग़ी
का
बचपन
के बाद यौवन
यौवन
के बाद बुढ़ापा
और
उसके बाद मौत
और
मौत के बाद
सब कुछ खत्म...
आदि काल से ही
चलती रही है
कभी नहीं रुकेगी
यह परम्परा
आती रहेगी धूप
पिघलते रहेंगे चेहरे...
|
शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017
मेरा एक पुराना गीत "चाँद बने बैठे चेले हैं"
सुख के बादल कभी न बरसे,
दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
अनजाने से अपने लगते,
बेगाने से सपने लगते,
जिनको पाक-साफ समझा था,
उनके ही अन्तस् मैले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
बन्धक आजादी खादी में,
संसद शामिल बर्बादी में,
बलिदानों की बलिवेदी पर,
लगते कहीं नही मेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
ज्ञानी है मूरख से हारा,
दूषित है गंगा की धारा,
टिम-टिम करते गुरू गगन में,
चाँद बने बैठे चेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
|
गुरुवार, 27 अप्रैल 2017
दोहे "मोह हो गया भंग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दिल्ली के सुलतान को, शायद आया होश।
गजभर लम्बी जीभ अब, बिल्कुल है खामोश।।
--
दिल्ली वालों ने किया, नहीं आप को माफ।
नगरनिगम के क्षेत्र में, किया सूपड़ा साफ।।
--
खिला कमल फिर से वहाँ, गयीं झाड़ुएँ हार।
धीरे-धीरे आप का, खिसक रहा आधार।।
--
कथनी-करनी में दिखा, अलग-अलग जब रंग।
जनता का तब आप से, मोह हो गया भंग।।
--
हाँडी माटी की चले, और काठ की नाव।
देश-काल अनुसार ही, होता अलग चुनाव।।
--
टकरा कर पाषाण से, देख लिया परिणाम।
शीश नवा कर कीजिए, प्रभु को सदा प्रणाम।।
--
अन्ना जी की आड़ ले, बनने चले कबीर।
ज्यादा दिन चलते नहीं, जग में नाटकवीर।।
|
बुधवार, 26 अप्रैल 2017
दोहे "मेहनत की पतवार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
खाली कभी न बैठिए, करते रहिए काम।
लिखने-पढ़ने से सदा, होगा जग में नाम।।
--
खाली रहे दिमाग तो, मन में चढ़े फितूर।
खुराफात इंसान को, कर देती मग़रूर।।
--
करे किनारा सुजन जब, मिट जाते सम्बन्ध।
दुनियादारी में धरे, रह जाते अनुबन्ध।।
--
नहीं कभी अभिमान से, बनती कोई बात।
ज्ञानी-सन्त-महन्त की, मिट जाती औकात।।
--
धन-दौलत-सौन्दर्य पर, मत करना अभिमान।
सेवा करके गुरू की, माँग लीजिए ज्ञान।।
--
गुरू चाहता शिष्य से, इतना ही प्रतिदान।
जीवनभर करता रहे, चेला उसका मान।।
--
मन में रहे उदारता, आदर के हों भाव।
मेहनत की पतवार से, पार लगेगी नाव।।
|
मंगलवार, 25 अप्रैल 2017
"ग़ज़ल हो गयी क्या" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ज़ज़्बात के बिन, ग़ज़ल हो गयी क्या
बिना दिल के पिघले, ग़ज़ल हो गयी क्या
नहीं कोई मक़सद, नहीं सिलसिला है
बिना बात के ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
नहीं कोई कासिद, नहीं कोई चिठिया
बिना कुछ लिखे ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
जरूरत के पाबन्द हैं, लोग अब तो
बिना दिल मिले ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
नज़र वो नहीं है, नज़ारे नहीं हैं
तन्हाइयों में, ग़ज़ल हो गयी क्या
नहीं कोई माशूक, आशिक नहीं है
तआरुफ़ बिना ही, ग़ज़ल हो गयी क्या
हुनर की जरूरत, न सीरत से मतलब
महज “रूप” से ही,
ग़ज़ल हो गयी क्या
|
गीत "अमलतास के झूमर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अमलतास के पीले गजरे, झूमर से लहराते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
ये मौसम की मार, हमेशा खुश हो कर सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त पथिक को, छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में तपकर, कंचन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
उछल-कूद करते मस्ती में, गिरगिट और गिलहरी भी,
वासन्ती आभास कराती, गरमी की दोपहरी भी,
प्यारे-प्यारे सुमन प्यार से, आपस में बतियाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
लुभा रहे सबके मन को, जो आभूषण तुमने पहने,
अमलतास तुम धन्य, तुम्हें कुदरत ने बख्शे हैं गहने,
सड़क किनारे खड़े तपस्वी, अभिनव “रूप” दिखाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।
|
रविवार, 23 अप्रैल 2017
दोहे "बत्ती नीली-लाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
नहीं मिलेगी किसी को, बत्ती नीली-लाल।
अफसरशाही को हुआ, इसका बहुत मलाल।।
--
लाल बत्तियों पर लगी, अब भगवा की रोक।।
सत्ता भोग-विलास में, छाया भारी शोक।।
--
लालबत्तियाँ पूछतीं, शासन से ये राज़।
इतने दशकों बाद क्यों, गिरी अचानक ग़ाज़।।
--
नेताओं का पड़ गया, चेहरा आज सफेद।
पलक झपकते मिट गया, आम-खास का भेद।।
--
देखे कब तक चलेगा, यह शाही फरमान।
दशकों की जागीर का, लुटा आज अभिमान।।
--
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
नहीं मिलेगी भोज में, तीतर और बटेर।।
--
अच्छा है यह फैसला, भले हुई हो देर।
एक घाट पर पियेंगे, पानी, बकरी-शेर।।
--
भारी मन से हो रहा, निर्णय यह स्वीकार।
सजी-धजी इस कार का, उजड़ गया सिंगार।।
|
दोहे "पुस्तक-दिन हो सार्थक, ऐसा करो उपाय" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पढ़े-लिखे करते नहीं, पुस्+तक से सम्वाद।
इसीलिए पुस्+तक-दिवस, नहीं किसी को याद।।
--
पुस्+तक उपयोगी नहीं, बस्ते का है भार।
बच्चों को कैसे भला, होगा इनसे प्यार।।
--
अभिरुचियाँ समझे बिना, पौध रहे हैं रोप।
नन्हे मन पर शान से, देते कुण्ठा थोप।।
--
बालक की रुचियाँ समझ, देते नहीं सुझाव।
बेमतलब की पुस्+तकें, भर देंगी उलझाव।।
--
शिक्षामन्त्री हो जहाँ, शिक्षा से भी न्यून।
कैसे हों लागू वहाँ, हितकारी कानून।।
--
पाठक-पुस् तक में हमें, करना होगा न्याय।
पुस्+तक-दिन हो सार्थक, ऐसा करो उपाय।।
|
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि ...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...