जमाना
डिजीटल हो गया है
दिखाई भी देता है
आज पैरों वाली
रिक्शा की जगह
ई-रिक्शा आ गयी हैं
...
नगरपालिका में
हाथ से खींचने वाली
कूड़ाठेली की जगह
स्वचालित कचरा लिफ्टर
ने ले ली है
...
लेकिन
बैल तो
बैल ही रहा
इसकी किस्मत
आज भी नहीं सँवरी
गाड़ी को
जीवन भर
खींचता रहा
भले ही आया हो
आधुनिक युग
लेकिन आज भी
इसकी गर्दन पर
जुआ ही धरा है
कुछ ऐसा ही हाल
ऊँट का भी है
वह आज भी
कोल्हू का ऊँट ही है
रेगिस्तान हों या मैदान हों
भारवाहक ही तो है
ऊँट जो ठहरा
लोग अब भी उसकी
सवारी गाँठते हैं
...
हाँ
पिछले कुछ दशकों में
उल्लू और गधों की
किस्मत जरूर निखरी है
आज
ऊँची अंजुमन में
इन प्राणियों की
माँग बहुत बढ़ गयी है
और
इनकी पाचनशक्ति
भी गजब की हो गयी है
चारे के साथ-साथ
न जाने
क्या-क्या पचा जाते हैं
ये ही तो हैं
पढ़े-लिखों के आका
रिश्वत के दूत
विकास के पूत...
|
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शुक्रवार, 15 मार्च 2019
अकविता "विकास के पूत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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