मीठे
सुर में गाकर कोयल, क्यों तुम समय गँवाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
बाज और
बगुलों ने सारे, घेर लिए हैं बाग अभी,
खारे
सागर के पानी में, नहीं गलेगी दाल कभी,
पेड़ों
की झुरमुट में बैठी, किसकी आस लगाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
चील
जहाँ पर आस-पास ही, पूरे दिन मंडराती हैं,
नोच-नोच
कर मरे मांस को, दिनभर खाती जाती हैं,
जो
स्वछन्द हो चुके, उन्हें क्यों लोकतन्त्र सिखलाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
जो जग
को भा जाये, वही भाषा सच्ची कहलाती है,
सीधी-सच्ची
भाषा ही तो, सबका मन बहलाती है,
अपनी
मीठी वाणी से तुम, सबका दिल बहलाती हो।
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
तन हो
भले तुम्हारा काला, सुर तो बहुत सुरीला है,
देखा जिनका
“रूप” सलोना, उनका मन जहरीला है,
गूँगे-बहरों की महफिल में, क्यों
इतना चिल्लाती हो?
कौन
सुनेगा सरगम के सुर, किसको गीत सुनाती हो?
|
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रविवार, 26 अप्रैल 2015
गीत "कौन सुनेगा सरगम के सुर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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