घटते वन,
बढ़ता प्रदूषण,
गाँव से पलायन
शहरों का आकर्षण।
जंगली जन्तु कहाँ जायें?
कंकरीटों के जंगल में
क्या खायें?
मजबूरी में वे भी
बस्तियों में घुस आये!
--
क्या हाथी,
क्या शेर?
क्या चीतल,
क्या वानर?
त्रस्त हैं,
सभी जानवर।
खोज रहे हैं सब
अपना आहार,
हो रहे हैं नर
अपनी भूलों का शिकार।
--
अभी भी समय है,
लगाओ पेड़,
उगाओ वन,
हो सके तो
बचा लो,
पर्यावरण!
○ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खटीमा (उत्तराखण्ड)
|
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बुधवार, 16 दिसंबर 2015
‘‘घटते वन-बढ़ता प्रदूषण’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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