ताने-बाने के सभी, उलझ रहे हैं तार।।
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कैसे सागर पार हो, नाविक हैं मक्कार।
छोड़ रहे मझधार में, हाथों से पतवार।।
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सैर-सपाटे के लिए, होता है परदेश।
तुलना में परदेश की, अच्छा लगता देश।।
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मतदाताओं की रही, यादगार कमजोर।
चमत्कार से वोट के, चमके चाराखोर।।
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कल तक जल का पान कर, रोज रहे थे कोस।
गले वही आकर मिले, हो करके मदहोस।।
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लालटेन के सामने, शरमा गयी उजास।
तेज सामने देखकर, ठहरा नहीं विकास।।
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नस्लवाद के शब्द पर, हुए बिहारी लाल।
तन के बहते खून में, आया जोश-उबाल।।
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आरोपी को कर लिया, फिर से अंगीकार।
जगह-जगह होने लगी, उसकी जय-जयकार।।
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प्रजातन्त्र में है नहीं, कोई कहीं अछूत।
जो कल तलक कपूत था, अब हो गया सपूत।।
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बुधवार, 2 दिसंबर 2015
दोहे "उलझ रहे हैं तार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-12-2019) को "तार जिंदगी के" (चर्चा अंक-3538) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
बहुत सुंदर और सटीक दोहे।
जवाब देंहटाएं".....
जवाब देंहटाएंकल तक जल का पान कर, रोज रहे थे कोस।
गले वही आकर मिले, हो करके मदहोस।।
आरोपी को कर लिया, फिर से अंगीकार।
जगह-जगह होने लगी, उसकी जय-जयकार।।
...."
फिर से लालटेन में तेल भरकर उसको जलाने का काम नीतीश ने ही किया था। इनकी ऐसी राजनीति के कारण ही बिहार बाकी प्रदेशों से पीछे रह गया।
बहुत बेहतरीन रचना।