मौसम ने ओढ़ ली,
ठिठुरन से मित्रता,
भास्कर ने जोड़ ली।
निर्धनता खोज रही,
आग के अलाव,
ईंधन के बढ़ गये
ऐसे में भाव।
जंगलों का दोहन,
खेतों में पनप रहे
कंकरीट के वन।
ठण्ड से काँप रहा,
कोमल बदन,
कूड़े से पन्नियाँ,
बीन रहा बचपन।
कचरे में रोटियाँ,
शासन नोच रहा,
उदर में जल रही,
भूख की ज्वाल,
निर्धन के पेट में,
अन्न का अकाल।
कुहरा तो एक दिन,
छँट ही जायेगा.
उसके बाद सूरज भी,
गर्मी दिखायेगा।
सर्दी में कम्पन,
गर्मी में स्वेदकण,
दूषित हुआ है,
सारा वातावरण।
जिन्दगी में सब कुछ,
झेलना जरूरी है.
नून, तेल-आटा,
लाना मजबूरी है।।
|
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रविवार, 6 दिसंबर 2015
अकविता "झेलना जरूरी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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