अपने शब्दों में धार भरो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
अनुबन्धों में भी मक्कारी,
सम्बन्ध बन गये व्यापारी।
जननायक करते गद्दारी,
लाचारी में दुनिया सारी।
अब नहीं समय शीतलता का,
मलयानिल में अंगार भरो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
है उपासना वासनायुक्त,
करना इसको वासनामुक्त।
कायरता का है उदयकाल,
हो गयी वीरता आज लुप्त।
अब पैन बाण सा पैना कर,
गांडीव उठा टंकार करो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
मत उत्तेजक शृंगार करो,
मिश्री जैसा मत प्यार करो।
छन्दों की सबल इमारत में,
मानवता का आधार धरो।
निज “रूप” पुरातन पहचानो,
फिर से वीणा झंकार करो।
सोई चेतना जगाने को,
जनमानस में हुंकार भरो।।
|
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शुक्रवार, 31 मार्च 2017
गीत "मलयानिल में अंगार भरो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, 30 मार्च 2017
नवगीत "पंक में खिला कमल"
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।
हाय-हाय हो रही,
गली-गली में शोर है,
रात ढल गई मगर,
तम से भरी भोर है,
बादलों में घिर गया,
भास्कर अमल-धवल।
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।
पर्वतों की चोटियाँ,
बर्फ से गयीं निखर,
सर्दियों के बाद भी,
शीत की चली लहर,
चीड़-देवदार आज,
गीत गा रहे नवल।
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।
चाँदनी लिए हुए,
चाँद भी डरा-डरा,
पादपों ने खो दिया
रूप निज हरा-भरा,
पश्चिमी लिबास में,
रूप खो गया सरल।
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।
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बुधवार, 29 मार्च 2017
गीत "स्वागत नवसम्वत्सर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
फिर से उपवन के सुमनों में
देखो यौवन मुस्काया है।
उपहार हमें कुछ देने को,
नूतन सम्वत्सर आया है।।
उजली-उजली ले धूप सुखद,
फिर सुख का सूरज सरसेगा,
चौमासे में बादल आकर,
फिर उमड़-घुमड़ कर बरसेगा,
फिर नई ऊर्जा देने को,
नूतन सम्वत्सर आया है।।
क्रिसमस-दीवाली-ईद,
दिलों में खुशियाँ लेकर आयेगी,
भूले-बिछुड़ों को अपनों से,
आ कर फिर गले मिलायेगी,
प्रगति के खुलते द्वार लिए,
नूतन सम्वत्सर आया है।।
पागलपन का उन्माद न हो,
हो और न कोई बँटवारा,
शस्त्रों की भूख मिटे मन से,
फैले जग में भाईचारा,
भू का अभिनव शृंगार लिए,
नूतन सम्वत्सर आया है।।
शिक्षा में हो विज्ञान भरा,
गुरुओं का आदर-मान रहे,
प्राचीन धरोहर बनी रहे,
मर्यादा का भी ध्यान रहे,
नवल-अमल सुविचार लिए,
नूतन सम्वत्सर आया है।।
शासक अपने खुद्दार बनें,
गद्दार न गद्दी को पाये,
सारे जग में सबसे अच्छा,
गणतन्त्र हमारा कहलाए,
झंकृत वीणा के तार लिए,
नूतन सम्वत्सर आया है।।
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मंगलवार, 28 मार्च 2017
ग़ज़ल "फतह मिलती सिकन्दर को" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
इरादों की बुलन्दी से, बदल डाला मुकद्दर को
लगी दिल में लगन हो तो, बहुत आसान है मंजिल
हमेशा जंग में लड़कर, फतह मिलती सिकन्दर को
अगर मर्दानगी के साथ में, जिन्दादिली भी हो
जहां में प्यार का ज़ज़्बा, बनाता मोम पत्थर को
नहीं ताकत थी गैरों में, वतन का सिर झुकाने की
हमारे देश का रहबर, लगाता दाग़ खद्दर को
हमारे “रूप” पर आशिक हुए दुनिया के सब गीदड़
सभी मकड़ी के जालों में फँसाते शेर बब्बर को
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सोमवार, 27 मार्च 2017
"भारतीय नववर्ष-2074 का हार्दिक शुभकामनाएँ"
गीत "गाँवों का निश्छल जीवन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
जब भी सुखद-सलोने सपने, नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।
सूरज उगने से पहले, हम लोग रोज उठ जाते थे,
दिनचर्या पूरी करके हम, खेत जोतने जाते थे,
हरे चने और मूँगफली के, होले मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
मट्ठा-गुड़ नौ बजते ही, दादी खेतों में लाती थी,
लाड़-प्यार के साथ हमें, वह प्रातराश करवाती थी,
मक्की की रोटी, सरसों का साग याद आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
आँगन में था पेड़ नीम का, शीतल छाया देता था,
हाँडी में का कढ़ा-दूध, ताकत तन में भर देता था,
खो-खो और कबड्डी-कुश्ती, अब तक मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
तख्ती-बुधका और कलम, बस्ते काँधे पे सजते थे,
मन्दिर में ढोलक-बाजा, खड़ताल-मँजीरे बजते थे,
हरे सिंघाड़ों का अब तक, हम स्वाद भूल नही पाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
युग बदला, पहनावा बदला, बदल गये सब चाल-चलन,
बोली बदली, भाषा बदली, बदल गये अब घर आंगन,
दिन चढ़ने पर नींद खुली, जल्दी दफ्तर को जाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
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रविवार, 26 मार्च 2017
गीतिका "पथ उनको क्या भटकायेगा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
पथ उनको क्या भटकायेगा, जो अपनी खुद राह बनाते
भूले-भटके राही को वो, उसकी मंजिल तक पहुँचाते
अल्फाज़ों के चतुर चितेरे, धीर-वीर-गम्भीर सुख़नवर
जहाँ न पहुँचें सूरज-चन्दा, वो उस मंजर तक हो आते
अमर नहीं है काया-माया, लेकिन शब्द अमर होते हैं
शब्द धरोहर हैं समाज की, दिशाहीन को दिशा दिखाते
विरह-व्यथा की भट्टी में, जब तपकर शब्द निकलते हैं
पाषाणों के भीतर जाकर, वो सीधे दिल को छू जाते
चाहे ग़ज़ल-गीत हो, या फिर दोहा या रूबाई हो
वजन बराबर हो तो, अपना असर बराबर दिखलाते
असली “रूप” दिखाता दर्पण, जो औकात बताता सबको
जो काँटों में पले-बढ़े हैं, वो ही तो गुलशन महकाते
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शनिवार, 25 मार्च 2017
"दूध-दही अपनाना है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
गैया-भैंसों का हमको लालन-पालन करना होगा,
अण्डे-मांस छोड़कर, हमको दूध-दही अपनाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
छाछ और लस्सी कलियुग में अमृततुल्य कहाते हैं,
पैप्सी, कोका-कोला को, भारत से हमें भगाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
दाड़िम और अमरूद आदि, फल जीवन देने वाले हैं,
आँगन और बगीचों में, फलवाले पेड़ लगाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
मानवता के हम संवाहक, ऋषियों के हम वंशज हैं,
दुनिया भर को फिर से, शाकाहारी हमें बनाना है।
शोषण और कुपोषण से, खुद बचना और बचाना है।।
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शुक्रवार, 24 मार्च 2017
गीत "ढल गयी है उमर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
प्रीत की पोथियाँ बाँचते-बाँचते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।
फासलों की फसल काटते-काटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
मन तो है चिरयुवा,
तन शिथिल पड़ रहा।
बूढ़ा बरगद अभी,
जंग को लड़ रहा।
सुख की सौगात को बाँटते-बाँटते,
झुक गयी है कमर।
ढल गयी है उमर।।
नेह की आस में,
बातियाँ जल रहीं।
वक्त आया बुरा,
आँधियाँ चल रहीं।
धुन्ध को-धूल को छाँटते-छाँटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
झूठ की रेल है,
सत्यता है कहाँ?
नौनिहालों में अब,
सभ्यता है कहाँ?
ज्ञान की गन्ध को बाँटते-बाँटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
देश आजाद है,
पर अमन हैं कहाँ?
मुस्कराता हुआ,
अब चमन हैं कहाँ?
ओस की बून्द को चाटते-चाटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
ख्वाब का नगमगी,
“रूप” है अब कहाँ?
प्यार की गुनगुनी,
धूप है अब कहाँ?
खाई अलगाव की पाटते-पाटते,
झुक गयी है कमर,
ढल गयी है उमर।।
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गुरुवार, 23 मार्च 2017
ग़ज़ल "फूल बनकर सदा खिलखिलाते रहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दर्द की छाँव में मुस्कराते रहे
फूल बनकर सदा खिलखिलाते रहे
हमको राहे-वफा में ज़फाएँ मिली
ज़िन्दग़ी भर उन्हें आज़माते रहे
दिल्लगी थी हक़ीक़त में दिल की लगी
बर्क़ पर नाम उनका सजाते रहे
जब भी बोझिल हुई चश्म थी नींद से
ख़्वाब में वो सदा याद आते रहे
पास आते नहीं, दूर जाते नहीं
अपनी औकात हमको बताते रहे
हम तो ज़ालिम मुहब्बत के दस्तूर को
नेक-नीयत से पल-पल निभाते रहे
जब भी देखा सितारों को आकाश में
वो हसीं “रूप” अपना दिखाते रहे
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बुधवार, 22 मार्च 2017
गीत "कल-कल, छल-छल करती धारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जल में-थल में, नीलगगन में,
जो कर देता है उजियारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
कलियाँ चहक रही उपवन में,
गलियाँ महक रही मधुबन में,
कल-कल, छल-छल करती धारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
पंछी कलरव गान सुनाते,
मेढक टर्र-टर्र टर्राते,
खिला कमल, बनकर अंगारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
सूरज जन-जीवन को ढोता,
चन्दा शीतल-शीतल होता,
दोनो हरते हैं अंधियारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
कोई भूले अपने पथ को,
रौशन करते सदा जगत को,
तुमने सबका काज सँवारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
|
मंगलवार, 21 मार्च 2017
दोहे "बदलेंगे अब ढंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दुनियाभर
में छा गया, अपना भगवा रंग।
जीवन शैली
के यहाँ, बदलेंगे अब ढंग।।
--
आता जब
अच्छा समय, होता सब अनुकूल।
खिलते जाते हैं
पंक में, कमल-कुमुद के फूल।।
--
अच्छे कामों
में सदा, आते हैं अवरोध।
चूहें-छिपकलियाँ
करें, रवि का बहुत विरोध।।
--
सूरज रखता
है नहीं, कभी किसी से बैर।
वसुन्धरा पर
सभी की, सदा मनाता खैर।।
--
करता देश
समाज से, जो भी सच्चा प्यार।
नौका को पतवार से, कर देता वो पार।।
--
रामचन्द्र
के नाम पर, जिसने किया विवाद।
जन-मानस ने
देश के, किया उसे बरबाद।।
--
दीन दुखी को
चाहिए, शासन में इंसाफ।
कूड़ा-करकट-गन्दगी,
करो देश से साफ।।
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