जल में-थल में, नीलगगन में,
जो कर देता है उजियारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
कलियाँ चहक रही उपवन में,
गलियाँ महक रही मधुबन में,
कल-कल, छल-छल करती धारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
पंछी कलरव गान सुनाते,
मेढक टर्र-टर्र टर्राते,
खिला कमल, बनकर अंगारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
सूरज जन-जीवन को ढोता,
चन्दा शीतल-शीतल होता,
दोनो हरते हैं अंधियारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
कोई भूले अपने पथ को,
रौशन करते सदा जगत को,
तुमने सबका काज सँवारा।
सबकी आँखों को भाता है,
रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।।
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बुधवार, 22 मार्च 2017
गीत "कल-कल, छल-छल करती धारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2609 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएं