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रटे-रटाये शब्द
हैं, घिसे-पिटे हैं वाक्य।
अँगरेजी करने
लगी, हिन्दी का शालाक्य।।
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कहने को स्वतन्त्र
हैं, लेकिन स्व स्वर्गीय।
देवनागरी रह
गयी, पुस्तक में पठनीय।।
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अँगरेजी की कैद
में, हिन्दी है परतन्त्र।
अपनी भाषा के
लिए, तरस रहा जनतन्त्र।।
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बिगड़ गयी है वर्तनी,
नहीं लिखाई ठीक।
भटक रही है देश
में, हिन्दी की तकनीक।।
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मास सितम्बर
में रहे, हिन्दी का उजियार।
बाकी पूरे
सालभर, रहता है अँधियार।।
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नहीं सार्थक है
अभी, आजादी का मन्त्र।
मीलों-कोसों
दूर है, जनता से जनतन्त्र।।
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ऋषि-मुनियों के
देश में, हिन्दी को वनवास।
अपनी भाषा के
बिना, भारत देश उदास।।
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शनिवार, 14 सितंबर 2019
दोहे "हिन्दी है परतन्त्र" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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