दीपक-धूप जलाइए, रोज
सवेरे शाम
जो सबके मन में
रमें, वो कहलाते राम।।
मन्दिर के
निर्माण का, स्वप्न हुआ साकार।
दिव्य-भव्य होगा
भवन, मानक के अनुसार।।
जन-गण-मन की
भावना, जन्मभूमि के साथ।
राम-लखन सीता
सहित, नमन आपको नाथ।।
रहते जिनके साथ
में, पवन पुत्र हनुमान।
दिव्य पुरुष
श्रीराम ही, जग के हैं भगवान।।
ताकत का श्रीराम
की, जिन्हें नहीं है बोध।
वो मन्दिर
निर्माण का, करते यहाँ विरोध।।
भारत के श्री राम
थे, मिला राम को न्याय।
राम भवन निर्माण
का, शुरू हुआ अध्याय।।
कुछ दल मगर विरोध
से, नहीं आ रहे बाज।
लेकिन उनके कृत्य
से, जनता है नाराज।।
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शुक्रवार, 31 जुलाई 2020
दोहे "मन्दिर के निर्माण का, स्वप्न हुआ साकार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दोहे "गबन और गोदान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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निर्धनता के जो रहे, जीवनभर पर्याय।
लमही में पैदा हुए, लेखक धनपत राय।।
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आम आदमी की व्यथा, लिखते थे जो नित्य।
प्रेमचन्द ने रच दिया, सरल-तरल साहित्य।।
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जीवित छप्पन वर्ष तक, रहे जगत में मात्र।
लेकिन उनके साथ सब, अमर हो गये पात्र।।
फाकेमस्ती में जिया, जीवन को भरपूर।
उपन्यास सम्राट थे, आडम्बर से दूर।।
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उपन्यास 'सेवासदन', 'गबन' और 'गोदान'।
हिन्दी-उर्दू अदब पर, किया बहुत अहसान।।
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'रूठीरानी' को लिखा, लिक्खा 'मिलमजदूर'।
प्रेमचन्द मुंशी रहे, सदा मजे से दूर।।
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लेखन में जिसका नहीं, झुका कभी किरदार।
उस लमही के लाल को, नमन हजारों बार।।
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गुरुवार, 30 जुलाई 2020
दोहे "जंगी यान रफेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
चीन-पाक की नाक में, अब पड़ गयी नकेल।।
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अब ड्रैगन-नापाक का, भन्ना रहा दिमाग।
दिल पर इनके लोटने, आज लगे हैं नाग।।
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कूटनीति का है नहीं, अपना कहीं जवाब।
गाल बजाने से कुटिल, कैसे बने नवाब।।
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ओढ़ लबादा शेर का, वीर न हो शृंगाल।
पहचाने जाते यहाँ, करतब से ऐमाल।।
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उपमा का अपनी नहीं, कोई भी उपमान।
गीदड़ भभकी से नहीं, डरता हिन्दुस्तान।।
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शेष बचे कश्मीर को, लेगा हिन्दुस्तान।
टुकड़ों में बँट जायगा, पापी पाकिस्तान।।
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कठिन समय को देखकर, करे किनारा चीन।
भारत निज भू भाग को, जबरन लेगा छीन।।
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दोहे "बनकर रहो शरीफ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भैंसे भी चलने लगे, अब तो टेढ़ी चाल।
गैंडों से भी हो गई, मोटी इनकी खाल।।
रोप रहे हैं चमन में, शातिर विष की बेल।
धर्म-जाति की आड़ में, खेल रहे हैं खेल।।
गाँधी, भीम-पटेल की, थोथी जय-जयकार।
बेटा-बाप कुटुम्भ की, दल-दल में भरमार।।
पण्डित-मुल्ला पन्थ की, चला रहे दूकान।
माथा अपना ठोंकते, राम और रहमान।।
लोकतन्त्र से है बँधा, जन-जन का अनुबन्ध।
राजतन्त्र की क्यों यहाँ, फैलाते दुर्गन्ध।।
देशभक्ति के रंग में, बनकर रहो शरीफ।
पाक-चीन की छोड़ दो, करना अब तारीफ।।
खाते हो जिस देश का, उससे करो न घात।
नहीं करो विष वमन को, करो नेह की बात।।
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बुधवार, 29 जुलाई 2020
दोहे "आज रफायल बन गया सैन्य शक्ति का अंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज रफायल बन गया, सैन्य शक्ति का अंग।
भारत का दम देखकर, चीन-पाक हैं दंग।।
दर्शन करो रफेल का, ओ बैरी नादान।
दूर करेगा निमिष में, ये विमान अभिमान।।
जिसका लोहा मानता, पूरा ही संसार।
दूरदर्शिता का वही, कहलाता अवतार।।
भारत कमतर है नहीं, किसी क्षेत्र में आज।
सारे जग से अलग है, मोदी का अन्दाज।।
रक्षा हित में देश की, करता है जो काज।
वही हमेशा वतन का, कहलाता सरताज।।
सागर तल से शैल तक, जिसकी है परवाज।
ऐसे विज्ञ वजीर पर, भारत को है नाज।।
अपनी रक्षा में रहा, भारत सदा समर्थ।
पामर-कायर समझ ले, सैन्य शक्ति का अर्थ।।
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मंगलवार, 28 जुलाई 2020
दोहे "कोरोना की बाढ़" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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उनके मँहगे बिल सभी, हो जाते है पास।
जो सरकारी खर्च पर, नाप रहे आकाश।।
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जनसेवक तो देश के, होंगे नहीं विपन्न।
भत्ते-वेतन छोड़ दें, फिर भी हैं सम्पन्न।।
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अब तो सेवाभाव का, खिसक रहा आधार।
कोरोना की बाढ़ में, घिरा हुआ संसार।।
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चाहे पर उपकार हो, या हो खुद का पेट।
जनसेवक हर हाल में, दौलत रहा समेट।।
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जहाँ शेर के साथ में, बकरी का गठजोड़।
वहाँ अकेला चना तो, भाड़ न सकता फोड़।
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अपना माथा पीटता, दोहाकार मयंक।
गंगा जी में आ गयी, तालाबों की पंक।।
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सोमवार, 27 जुलाई 2020
दोहे "कौन सुखी परिवार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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रिश्तों-नातों से भरा, सारा ही संसार।
प्यार परस्पर हो जहाँ, वो होता परिवार।।
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सम्बन्धों में हों जहाँ, छोटी-बड़ी दरार।
धरती पर कैसे कहें, कौन सुखी परिवार।।
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एक दूसरे के लिए, रहो सदैव उदार।
प्यार सुखी परिवार का, होता है आधार।।
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अपने कुनबे में करो, कभी न झूठा प्यार।
सबके प्रति परिवार में, हों सच्चे उद्गार।।
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कोई भी परिवार हो, कोई देश-समाज।
अवसर के अनुकूल ही, वहाँ बजाओ साज।।
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एक-नेक रहता वही, दुनिया में परिवार।
जहाँ दिलों में हों भरे, सबके नेक विचार।।
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रविवार, 26 जुलाई 2020
समीक्षा “सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ” (हीरो वाधवानी)
शनिवार, 25 जुलाई 2020
दोहे "पावस का आगाज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब से मेघों ने किया, पावस
का आगाज।
पवन बसन्ती चल रहा, झूम
रहा गजराज।।
अपना आज सँवार लो, कर लो कर्म पुनीत।
कुदरत के उपहार हैं, गरमी-पावस-शीत।।
पावस का मौसम हमें, देता
है सन्देश।
अपने प्यारे देश का, साफ
करो परिवेश।।
आँखमिचौली कर रही, पावस
की बरसात।
घन-सूरज के खेल में,
कभी न होती मात।।
बिजली चम-चम चमकती, बादल
करते शोर।
पावस की रिमझिम करे,
मन को बहुत विभोर।।
पावस ऋतु में हो गये
आवारा घनश्याम।
अनुशीलन का नित्य
ही, करते रहना काम।।
नदियाँ बहती वेग से,
उफन रहे हैं ताल।
झोपडियाँ होने लगीं,
पावस में बदहाल।।
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