भैंसे भी चलने लगे, अब तो टेढ़ी चाल।
गैंडों से भी हो गई, मोटी इनकी खाल।।
रोप रहे हैं चमन में, शातिर विष की बेल।
धर्म-जाति की आड़ में, खेल रहे हैं खेल।।
गाँधी, भीम-पटेल की, थोथी जय-जयकार।
बेटा-बाप कुटुम्भ की, दल-दल में भरमार।।
पण्डित-मुल्ला पन्थ की, चला रहे दूकान।
माथा अपना ठोंकते, राम और रहमान।।
लोकतन्त्र से है बँधा, जन-जन का अनुबन्ध।
राजतन्त्र की क्यों यहाँ, फैलाते दुर्गन्ध।।
देशभक्ति के रंग में, बनकर रहो शरीफ।
पाक-चीन की छोड़ दो, करना अब तारीफ।।
खाते हो जिस देश का, उससे करो न घात।
नहीं करो विष वमन को, करो नेह की बात।।
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गुरुवार, 30 जुलाई 2020
दोहे "बनकर रहो शरीफ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह , तेज और धारदार , पहले जैसा !!
जवाब देंहटाएंप्रणाम भाई जी !
सुन्दर और सराहनीय बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंलोकतन्त्र से है बँधा, जन-जन का अनुबन्ध।
जवाब देंहटाएंराजतन्त्र की क्यों यहाँ, फैलाते दुर्गन्ध।।
वाह!!!
कँया बात ...सटीक ....
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंवाह !बेहतरीन दोहे सर ।
जवाब देंहटाएंसादर