रंग-रंगीली इस दुनिया में, झंझावात बहुत गहरे हैं। कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।। -- पल-दो पल का होता यौवन, नहीं पता कितना है जीवन, जीवन की आपाधापी में, लोग हुए गूँगे-बहरे हैं। कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।। -- सागर का पानी खारा है, नदिया की मीठी धारा है, बंजारों का नहीं ठिकाना, एक जगह वो कब ठहरे हैं। कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।। -- शासक बने आज व्यापारी, प्रीत-रीत में है मक्कारी, छिपे हुए उजले लिबास में, काले दाग़ बहुत गहरे हैं। कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।। -- मानवता का 'रूप' घिनौना, हुआ आदमी का का कद बौना, दूध-दही के भण्डारों पर, बिल्ले ही देते पहरे हैं। कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।। |
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शुक्रवार, 6 मई 2022
गीत "लोग हुए गूँगे-बहरे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०७-०५-२०२२ ) को
'सूरज के तेवर कड़े'(चर्चा अंक-४४२२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह!बहुत सार्थक और सारगर्भित
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना आदरणीय।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएं