बात-बात में निकलते, साला-साली शब्द। देवनागरी हो रही, देख-देख निःशब्द।। अगर मनुज के हृदय का, मर जाये शैतान।, फिर से जीवित धरा पर, हो जाये इंसान।। कमी नहीं कुछ देश में, भरे हुए गोदाम। खास मुनाफा खा रहे, परेशान हैं आम।। बढ़ते भ्रष्टाचार को, देगा कौन लगाम। जनसेवक को चाहिए, चिलगोजे बादाम।। आज पुरानी नीँव के, खिसक रहे आधार। नवयुग की इस होड़ में, बिगड़ गये आचार।। नियमन आवागमन का, किसी और के हाथ। जाना तो तय हो गया, आने के ही साथ।। प्यार और नफरत यहाँ, जीवन के हैं खेल। एक बढ़ाता द्वेष को, एक कराता मेल।। |
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गुरुवार, 19 मई 2022
दोहे "जीवन के हैं खेल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२०-०५-२०२२ ) को
'कुछ अनकहा सा'(चर्चा अंक-४४३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सबको प्रेम से व्यवहार करना चाहिए, गाली वही लोग देते हैं जिनके पास अपनी बात का कोई तर्क नहीं होता।
जवाब देंहटाएंआज गिरधर कविराय होते तो - 'लाठी में गुन बहुत हैं' के साथ-साथ - 'गाली में गुन बहुत हैं' भी लिखते. और शायद - 'चोरी में गुन बहुत हैं' और - 'डाके में गुन बहुत हैं' भी उनको कहना पड़ता.
जवाब देंहटाएंवाह!सर ,बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंयथार्थ परिदृश्य पर समसामयिक सृजन।
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक।