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बुधवार, 31 अगस्त 2022
मंगलवार, 30 अगस्त 2022
दोहे "गणनायक भगवान की महिमा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
विघ्नविनाशक आप हो, सभी गणों के ईश। पूजा करते आपकी, सुर-नर और मुनीश।। -- करता है आराधना, मन से सकल समाज। बिना आपके तो नहीं, होते मंगल काज।। -- दीपों के त्यौहार में, होता दिव्य निवेश। घर में लाते हैं सभी, लक्ष्मी और गणेश।। -- पार्वतीनन्दन प्रभो, शिवजी के हो पूत। नहीं आपकी दृष्टि में, कोई वृन्द अछूत।। -- शुक्ल चतुर्थी से शुरू, चतुर्दशी अवसान। दस दिन रहता देश में, श्रद्धा का उन्वान।। -- सॉँझ-सवेरे आरती, उसके बाद प्रसाद। होता है दरबार में, घण्टा-ध्वनि का नाद।। -- गणनायक भगवान की, महिमा बहुत अनन्त। कृपा आपकी हो अगर, जीवन बने बसन्त।। -- मोदक हैं प्रिय आपको, गणनायक भगवान। बनकर वाहन आपका, मूषक हुआ महान।। -- |
सोमवार, 29 अगस्त 2022
दोहे "बिगड़ गये सम्बन्ध" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- नहीं रहे घर आजकल, वो
हैं सिर्फ मकान। अपने ऐसे रह रहे, जैसे
हों अनजान।। -- सन्तानों से अब नहीं,
होती कोई बात। बदले में माँ-बाप को,
मिलती गाली-लात।। -- बिना किसी भी स्वार्थ
से, जिसने माँगी खैर। उससे नफरत सुत करें, तात
हो गया गैर।। -- रिश्तों में से मिट
गई, सारी आज सुगन्ध। मनमानी के दौर में,
बिगड़ गये सम्बन्ध।। -- कहनेभर के ही लिए, है
पूरा परिवार। जग में निर्धन बाप ही, सबसे है लाचार।। -- धन-दौलत की बाढ़ में,
घिरा हुआ संसार। लील लिया कलिकाल ने, सन्तानों
का प्यार।। -- नहीं सुखद अवसान है,
नहीं सुहानी भोर। क्रूर समय के चक्र पर,
नहीं किसी का जोर।। |
रविवार, 28 अगस्त 2022
ग़ज़ल "दर्द का मरहम लगा लिया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
-- जीने का ढंग हमने, ज़माने में पा लिया। सारे जहाँ का दर्द, जिगर में बसा लिया।। -- दुनिया में जुल्म-जोर के, देखें हैं रास्ते, सदियाँ लगेंगी उनको, भुलाने के वास्ते, जख्मों में हमने दर्द का, मरहम लगा लिया। सारे जहाँ का दर्द, जिगर में बसा लिया।। -- हमने तो दुश्मनों की, हमेशा बड़ाई की, पर दोस्तों ने बे-वजह, हमसे लड़ाई की, हमने वफा निभाई, उन्होंने दगा किया। सारे जहाँ का दर्द, जिगर में बसा लिया।। -- आया गमों का दौर तो, दिल तंग हो गये, मित्रों में मित्रता के भाव, भंग हो गये, काँटों को फूल मान, चमन में सजा लिया। सारे जहाँ का दर्द, जिगर में बसा लिया।। -- |
शनिवार, 27 अगस्त 2022
गीत "साथ नहीं है कुछ भी जाना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- आज बहुत है नया-नवेला, कल को होगा यही पुराना। जीवन के इस कालचक्र में, लगा रहेगा आना-जाना।। -- गोल-गोल है दुनिया सारी, चन्दा-सूरज गोल-गोल है। गोल-गोल में घूम रहे सब, गोल-गोल की यही पोल है। घूम-घूमकर, सारे जग को, बना रहा है काल निशाना। जीवन के इस कालचक्र में, लगा रहेगा आना-जाना।। -- दिन दूनी औ’ रात चौगुनी, बढ़ती जातीं अभिलाषाएँ। देश-काल के साथ बदलतीं, पाप-पुण्य की परिभाषाएँ। धन संचय की होड़ लगी है, साथ नहीं है कुछ भी जाना। जीवन के इस कालचक्र में, लगा रहेगा आना-जाना।। -- कहीं सरल हैं कहीं वक्र हैं, बहुत कठिन जीवन की राहें। मंजिल पर जानेवालों की, छोटे पथ पर लगी निगाहें। लेकिन लक्ष्य उसे ही मिलता, जिसने सही मार्ग पहचाना। जीवन के इस कालचक्र में, लगा रहेगा आना-जाना।। -- |
शुक्रवार, 26 अगस्त 2022
गीत "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- ज़िन्दगी को आज खाती है सुरा। मौत का पैगाम लाती है सुरा।। -- उदर में जब पड़ गई दो घूँट हाला, प्रेयसी लगनी लगी हर एक बाला, जानवर जैसा बनाती है सुरा। मौत का पैगाम लाती है सुरा।। -- ध्यान जनता का हटाने के लिए, नस्ल को पागल बनाने के लिए, आज शासन को चलाती है सुरा, मौत का पैगाम लाती है सुरा।। -- आज मयखाने सजे हर गाँव में, खोलती सरकार है हर ठाँव में, सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा। मौत का पैगाम लाती है सुरा।। -- इस भयानक खेल में वो मस्त हैं, इसलिए भोले नशेमन त्रस्त हैं, हर कदम पर अब सताती है सुरा। मौत के पैगाम को लाती सुरा।। -- सोमरस के दो कसैले घूँट पी, तोड़ कर अपनी नकेले ऊँट भी, नाच नंगा अब नचाती है सुरा। मौत के पैगाम को लाती सुरा।। -- डस रहे हैं देश काले नाग अब, कोकिला का “रूप" भऱकर काग अब, गान गाता आज नाती बेसुरा। मौत के पैगाम को लाती सुरा।। -- |
गुरुवार, 25 अगस्त 2022
दोहे "याददाश्त कमजोर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- सीखो सबक विनाश से, समझो कुछ संकेत। बंजर पल भर में बनें, राजनीति के खेत।। -- सबको अपनी ही पड़ी, जाय भाड़ में देश। जनता का धन खा रहे, कब से उजले वेश।। -- शस्यश्यामला धरा से, नष्ट हो रहे फूल। उपवन में उगने लगे, काँटे और बबूल।। -- एक जरा सी चूक से, जनता में है रोष। एक दूसरे पर सभी, लगा रहे हैंं दोष।। -- उपवन में सूखा पड़े, या आये सैलाब। साथ-साथ दोनों रहें, काँटे और गुलाब।। -- जनमानस की है यहाँ, याददाश्त कमजोर। इसीलिए हैं जीतते, लोकतन्त्र में चोर।। -- संघर्षों के काल में, लोग हुए मजबूर। अपनों से होने लगे, अपने ही अब दूर।। -- |
बुधवार, 24 अगस्त 2022
"लघुकथा-भूख" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बात लगभग 40 साल पुरानी है। तब मेरा निवास नेपाल की सीमा पर
स्थित बनबसा में था। उन दिनों नेपाल में मेरा हम-वतन प्रीतम लाल पहाड़ में खच्चर
लादने का काम करता था। इनका परिवार भी इनके साथ ही पहाड़ में किराये के झाले में
रहता था। कुछ दिनों के बाद इनका अपने घर नजीबाबाद के पास
गाँव में जाने का कार्यक्रम था। अतः रास्ते में मेरा घर होने के कारण मिलने के
लिए आये। औपचारिकतावश्
चाय नाश्ता बनाया गया। प्रीतम की लड़की चाय बना कर लाई। परन्तु उसने चाय
को बना कर छाना ही नही। पहले सभी को निथार कर चाय परोसी गई। नीचे बची चाय
को उसने अपने छोटे भाई बहनों के कपों में उडेल दिया। सभी लोग चाय पीने लगे। लेकिन प्रीतम के बच्चों ने चाय पीने के बाद चाय
पत्ती को भी मजा लेकर खाया। ये लोग अब बस से जाने की तैयारी में थे कि प्रीतम ने मुझसे
कहा कि डॉ. साहब कल से भूखे हैं। हमें 2-2 रोटी तो खिला ही दो। मैंने कहा- ‘‘जरूर।’’ श्रीमती ने पराँठे बनाने शुरू किये तो मैंने कहा
कि इनके लिए रास्ते के लिए भी पराँठे रख देना। अब प्रीतम और उसके परिवार ने पराँठे खाने शुरू
किये। वो सब इतने भूखे थे कि पेट जल्दी भरने के चक्कर में दो पराँठे एक साथ हाथ
में लेकर डबल-टुकड़े तोड़-तोड़ कर खाने लगे। उस दिन मैंने देखा कि भूख और निर्धनता क्या होती है। |
मंगलवार, 23 अगस्त 2022
बालगीत "उमड़-घुमड़ कर बादल छाये" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- नभ में सूरज लुप्त हुआ है, नद-नाले भी हैं उफनाये।। आसमान में बिजली चमकी, उमड़-घुमड़ कर बादल छाये। -- बारिश से घर आँगन गीले, टपक रहा हैं निर्धन का डेरा। दरक रही हैं
शैल-शिलाएँ, आफत ने जन-जीवन घेरा। वानर-भालू त्रस्त हो
रहे, कागा काँव-काँव
चिल्लाये। नभ में सूरज लुप्त हुआ है, नद-नाले जल से उफनाये।। -- जल की मोटी बूँदें
आयीं, कुदरत ने शृंगार
बिखेरा। आसमान हो गया
गन्दुमी, भरी दुपहरी हुआ अँधेरा।। काफल-सेब, खुमानी-आड़ू, खाकर सबके मन हर्षाये। नभ में सूरज लुप्त हुआ है, नद-नाले जल से उफनाये।। -- हरियाली बिखरी धरती पर, दादुर खुश हो करके गाते। सन्नाटे को दुर भगाते, झींगुर अभिनव राग सुनाते। आसमान का पानी पीकर, खेतों में पौधे लहराये। नभ में सूरज लुप्त हुआ है, नद-नाले जल से उफनाये।। -- पानी की है ग़जब कहानी, बाहर पानी-भीतर पानी। इठलाती-बलखाती आयी, फिर नदियों में नई जवानी। दो दिन में ही मौसम बदला, बारिश तन की तपन मिटाये। नभ में सूरज लुप्त हुआ है, नद-नाले जल से उफनाये।। -- बरस रहा भादो में पानी, बारिश में बाहर मत जाओ। आलू, प्याज और बैंगन के, गरमा-गरम पकौड़े खाओ। अखबारों की नाव बनाने, बालक कागज लेकर आये। नभ में सूरज लुप्त हुआ है, नद-नाले जल से उफनाये।। |
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