करना कभी न भूलकर, कुदरत से खिलवाड़।
कुदरत पलभर में करे, खिलते चमन उजाड़।।
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मास कार्तिक दे रहा, हम सबको उपहार।
हर्ष और उल्लास को, लाते हैं त्यौहार।।
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खुशियाँ सबको बाँटना, होना नहीं उदास।
जीवन के तो अंग हैं, हास और परिहास।।
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विद्वानों की तो सभी, करते हैं मनुहार।
देश और परदेश में, उनको मिलता प्यार।।
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दर्प नहीं करना कभी, बन करके धनवान।
निर्धन-श्रमिक-किसान हैं, धरती के भगवान।।
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काँटों रखते चमन में, अपने सदा उसूल।
जो सुमनों को मसलते, उनको चुभते शूल।।
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विध्वंशों के बाद में, होता नवनिर्माण।
जीवनभर करते रहो, निर्बल का परित्राण।।
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रविवार, 1 नवंबर 2015
दोहे "कुदरत से खिलवाड़" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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