हनुमान जयन्ती की
सभी भक्तों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
जिनके हृदय-अलिन्द में, रचे-बसे श्रीराम।
धीर-वीर, रक्षक प्रबल, बलशाली-हनुमान।।
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महासिन्धु को लाँघकर, नष्ट किये वन-बाग।
असुरों को आहत किया, लंका मे दी आग।।
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कभी न टाला राम का, था जिसने आदेश।
सीता माता को दिया, रघुवर का सन्देश।।
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लछमन को शक्ति लगी, शोकाकुल थे राम।
पवन वेग की चाल से, पहुँचे पर्वत धाम।।
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संजीवन के शैल को, उठा लिया तत्काल।
बूटी खा जीवित हुए, दशरथ जी के लाल।।
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बिगड़े काम बनाइए, बनकर कृपा निधान।
कोटि-कोटि वन्दन तुम्हे, पवनपुत्र हनुमान।।
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शनिवार, 31 मार्च 2018
दोहे "पवनपुत्र हनुमान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कविता "थीम चुराई मेरी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कुछ ने पूरी पंक्ति उड़ाई,
कुछ ने थीम चुराई मेरी।
मैं तो रोज नया लिखता हूँ
रोज बजाता हूँ रणभेरी।
चोरों के नहीं महल बनेंगे,
इधर-उधर ही वो डोलेंगे।
उनको माँ कैसे वर देगी,
उनके शब्द नहीं बोलेंगे।
उनका जीना भी क्या जीना,
सिसक-सिसककर जो है जिन्दा।
ऐसे पामर नीच-निशाचर,
होते नहीं कभी शरमिन्दा।
अक्षय-गागर मुझको देकर,
माता ने उपकार किया है।
चोर-उचक्कों से देवी ने,
शब्दकोश को छीन लिया है।
मैं उनका स्वागत करता हूँ,
जो ऐसे गीतों को रचते।
मुखड़ा मेरा जिनको भाया,
किन्तु सत्य कहने से बचते।
छन्द-काव्य को तरस रहे वो,
चूर हुए उनके सपने हैं।
कैसे कह दूँ उनको बैरी,
वो सब तो मेरे अपने हैं।
समझदार के लिए इशारा,
इस तुकबन्दी में करता हूँ।
मैं दिन-प्रतिदिन लिखता जाता,
केवल ईश्वर से डरता हूँ।
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शुक्रवार, 30 मार्च 2018
दोहे "दर्पण में तसबीर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दर्पण में आता अगर, हमको नज़र चरित्र।
कभी न फिर हम देखते, खुद का उसमें चित्र।।
गोरा-काला-गन्दुमी, या हो रूप कुरूप।
दर्पण देता है दिखा, सबको असली रूप।।
चाहे लोग प्रसन्न हों, चाहे जायें रूठ।
चटका हो दर्पण भले, नहीं बोलता झूठ।।
मन में चाहे दुःख हो, या फिर हो उल्लास।
दर्पण में मुख देख कर हो जाता आभास।।
नित्य देखता जो मनुज, दर्पण में तसबीर।
सुन्दर दिखने की सदा, करता वो तदवीर।।
नित्य नियम से कीजिए, दर्पण का उपयोग।
कभी न मन में पालिए, दर्प नाम का रोग।।
दिल की कोटर में बसा, मन है बड़ा विचित्र।
मन को दर्पण लो बना, कर लो चित्त पवित्र।।
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गुरुवार, 29 मार्च 2018
गीत "सन्नाटा पसरा गुलशन में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कैसे फूल खिलें उपवन में?
द्वार कामना से संचित है,
हृदय भावना से वंचित है,
प्यार वासना से रंजित है,
सन्नाटा पसरा गुलशन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
सूरज शीतलता बरसाता,
चन्दा अगन लगाता जाता,
पागल षटपद शोर मचाता,
धूमिल तारे नीलगगन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
युग केवल अभिलाषा का है,
बिगड़ गया सुर भाषा का है,
जीवन नाम निराशा का है,
कोयल रोती है कानन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
अंग और प्रत्यंग वही हैं,
पहले जैसे रंग नहीं हैं,
जीने के वो ढंग नहीं हैं,
काँटे उलझे हैं दामन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
मौसम भी अनुरूप नहीं है,
चमकदार अब धूप नहीं है,
तेजस्वी अब “रूप” नहीं है,
पात झर गये मस्त पवन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
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बुधवार, 28 मार्च 2018
दोहागीत "आपस में तकरार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बात-बात पर हो रही, आपस में तकरार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
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बेकारी में भा रहा, सबको आज विदेश।
खुदगर्ज़ी में खो गये, ऋषियों के सन्देश।।
कर्णधार में है नहीं, बाकी बचा जमीर।
भारत माँ के जिगर में, घोंप रहा शमशीर।।
आज देश में सब जगह, फैला भ्रष्टाचार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
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कुनबेदारी ने लिया, लोकतन्त्र का “रूप”।
सबके हिस्से में नहीं, सुखद गुनगुनी धूप।।
दल-दल के तो मूल में, फैला मैला पंक।
अब कैसे राजा हुए, कल तक थे जो रंक।।
कैसे भी हो आय हो, मन में यही विचार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
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ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज।
लूट रहे हैं चमन को, माली ही खुद आज।।
खूनी पंजा देखकर, सहमे हुए कपोत।
सूरज अपने को कहें, ये छोटे खद्योत।।
मन को अब भाती नहीं, वीणा की झंकार।
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
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आपाधापी की यहाँ, भड़क रही है आग।
पुत्रों के मन में नहीं, माता का अनुराग।।
बड़ी मछलियाँ खा रहीं, छोटी-छोटी मीन।
देशनियन्ता पर रहा, अब कुछ नहीं यकीन।।
छल-बल की पतवार से, कैसे होंगे पार,
इसीलिए मैली हुई, गंगा जी की धार।।
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मंगलवार, 27 मार्च 2018
दोहे "विश्व रंग-मंच दिवस" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रंग-मंच है जिन्दगी, अभिनय करते लोग।
नाटक के इस खेल में, है संयोग-वियोग।।
विद्यालय में पढ़ रहे, सभी तरह के छात्र।
विद्या के होते नहीं, अधिकारी सब पात्र।।
आपाधापी हर जगह, सभी जगह सरपञ्च।।
रंग-मंच के क्षेत्र में, भी है खूब प्रपञ्च।।
रंग-मंच भी बन गया, जीवन का जंजाल।
भोली चिड़ियों के लिए, जहाँ बिछे हैं जाल।।
रंग-मंच का आजकल, मिटने लगा रिवाज।
मोबाइल से जाल पर, उलझा हुआ समाज।।
कहीं नहीं अब तो रहे, सुथरे-सज्जित मञ्च।
सभी जगह बैठे हुए, गिद्ध बने सरपञ्च।।
नहीं रहे अब गीत वो, नहीं रहा संगीत।
रंग-मंच के दिवस की, मना रहे हम रीत।।
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गीत "माला बन जाया करती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब कोई श्यामल सी बदली,
सपनों में छाया करती है!
तब होता है जन्म गीत का,
रचना बन जाया करती है!!
निर्धारित कुछ समय नही है,
कोई अर्चना विनय नही है,
जब-जब निद्रा में होता हूँ,
तब-तब यह आया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
शोला बनकर आग उगलते,
कहाँ-कहाँ से शब्द निकलते,
अक्षर-अक्षर मिल करके ही,
माला बन जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
दीन-दुखी की व्यथा देखकर,
धनवानों की कथा देखकर,
दर्पण दिखलाने को मेरी,
कलम मचल जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
भँवरे ने जब राग सुनाया,
कोयल ने जब गाना गाया,
मधुर स्वरों को सुनकर मेरी,
नींद टूट जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
वैरी ने हुँकार भरी जब,
धनवा ने टंकार करी तब,
नोक लेखनी की तब मेरी,
भाला बन जाया करती है!
रचना बन जाया करती है!!
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सोमवार, 26 मार्च 2018
गीत "सरस सुमन भी सूख चले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भटक रहा है आज आदमी, सूखे रेगिस्तानों में।
चैन-ओ-अमन, सुकून खोजता, मजहब की दूकानों में।
मालिक को उसके बन्दों ने, बन्धक आज बनाया है,
मिथ्या आडम्बर से, भोली जनता को भरमाया है,
धन के लिए समागम होते, सभागार-मैदानों में।
पहले लूटा था गोरों ने, अब काले भी लूट रहे,
धर्मभीरु भक्तों को, जमकर साधू लूट रहे,
क्षमा-सरलता नहीं रही, इन इन्सानी भगवानों में।
झोली भरते हैं विदेश की, हम सस्ते के चक्कर में,
टिकती नहीं विदेशी चीजें, गुणवत्ता की टक्कर में,
नैतिकता नीलाम हो रही, परदेशी सामानों में।
जितनी ऊँची दूकानें, उनमें फीके पकवान सजे,
सोना-चाँदी भरे कुम्भ से, कैसे कोमल साज बजे,
खोज रहे हैं लोग जायका, स्वादहीन पकवानों में।
गंगा सूखी, यमुना सूखी, सरस सुमन भी सूख चले,
ज्ञानभास्कर लुप्त हो गया, तम का वातावरण पले,
ईश्वर-अल्लाह कैद हो गया, आलीशान मकानों में।।
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रविवार, 25 मार्च 2018
गीत "सुख वैभव माँ तुमसे आता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तुमको सच्चे मन से ध्याता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
व्रत-पूजन में दीप-धूप हैं,
नवदुर्गा के नवम् रूप हैं,
मैं देवी का हूँ उद् गाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
प्रथम दिवस पर शैलवासिनी,
शैलपुत्री हैं दुख विनाशिनी,
सन्तति का माता से नाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
देवी तुम हो मंगलकारिणी,
निर्मल रूप आपका भाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
बनी चन्द्रघंटा तीजे दिन,
मन्दिर में रहती हो पल-छिन,
सुख-वैभव तुमसे है आता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
कूष्माण्डा रूप तुम्हारा,
भक्तों को लगता है प्यारा,
पूजा से संकट मिट जाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
पंचम दिन में स्कन्दमाता,
मोक्षद्वार खोलो जगमाता,
भव-बन्धन को काटो माता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
कात्यायनी बसी जन-जन में,
आशा चक्र जगाओ मन में,
भजन आपका मैं हूँ गाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
कालरात्रि की शक्ति असीमित,
ध्यान लगाता तेरा नियमित,
तव चरणों में शीश नवाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
महागौरी का है आराधन,
कर देता सबका निर्मल मन,
जयकारे को रोज लगाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
सिद्धिदात्री हो तुम कल्याणी
सबको दो कल्याणी-वाणी।
मैं बालक हूँ तुम हो माता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
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