मधुर पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है,
हमारा आवरण जिसने, सजाया और सँवारा है।
बहुत आभार है उसका, बहुत उपकार है उसका,
दिया माटी के पुतले को, उसी ने प्राण प्यारा है।।
बहाई ज्ञान की गंगा, मधुरता ईख में कर दी,
कभी गर्मी, कभी वर्षा, कभी कम्पन भरी सरदी।
किया है रात को रोशन, दिये हैं चाँद और तारे,
अमावस को मिटाने को, दियों में रोशनी भर दी।।
मधुर पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है,
हमारा आवरण जिसने, सजाया और सँवारा है।।
लगा जब रोग का सदमा, तो उसने ही दवा दी है,
कुहासे को मिटाने को, उसी ने तो हवा दी है।
जो रहते जंगलों में, भीगते बारिश के पानी में,
उन्ही के वास्ते झाड़ी मे कुटिया सी छवा दी है।।
मधुर पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है,
हमारा आवरण जिसने, सजाया और सँवारा है।।
सुबह और शाम को मच्छर, सदा गुणगान करते हैं,
जगत के उस नियन्ता को, सदा प्रणाम करते हैं।
मगर इन्सान है खुदगर्ज कितना आज के युग में ,
विपत्ति जब सताती है, नमन शैतान करते है।।
मधुर पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है,
हमारा आवरण जिसने, सजाया और सँवारा है।।
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सोमवार, 30 अप्रैल 2018
गीत "बहुत उपकार है उसका" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रविवार, 29 अप्रैल 2018
गीत "कमल पसरे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रंग-रंगीली इस दुनिया में, झंझावात बहुत गहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
पल-दो पल का होता यौवन,
नहीं पता कितना है जीवन,
जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत उभरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
सागर का पानी खारा है,
नदिया की मीठी धारा है,
बंजारों का नहीं ठिकाना, एक जगह वो कब ठहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
शासक बने आज व्यापारी,
प्रीत-रीत में है मक्कारी,
छिपे हुए उजले लिबास में, काले दाग़ बहुत गहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
मानवता का “रूप” घिनौना,
हुआ आदमी का का कद बौना,
दूध-दही के भण्डारों पर, बिल्ले ही देते पहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
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शनिवार, 28 अप्रैल 2018
गीत "कर्तव्य और अधिकार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब तक तन में प्राण रहेगा, हार नहीं माँनूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
टिक-टिक करती घड़ी, सूर्य-चन्दा चलते रहते हैं,
अपने मन की कथा-व्यथा को, कभी नहीं कहते हैं,
बिना वजह मैं कभी किसी से, रार नहीं ठाँनूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
जीवन के भवसागर से, नौका को पार लगाना है,
श्रम करके जीविका कमाना, सीधा पथ अपनाना है,
भोले-भाले, असहायों पर, शस्त्र नहीं ताँनूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
जन्मभूमि के लिए जियूँगा, इसके लिए मरूँगा,
आन-बान के लिए देश की, अर्पण प्राण करूँगा,
मर्यादा की सीमा को, मैं कभी नहीं लाँघूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018
"यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जनाब ये किसी समुद्र का सीन नहीं है।
यह है भारत नेपाल सीमा पर बना शारदा सागर जलाशय। यह दिल्ली से 320 किमी की दूरी पर उत्तराखण्ड के ऊधमसिंहनगर जिले के खटीमा से उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले तक एक बड़े हिस्से में फैला हुआ है।
आज हम आपको उत्तराखण्ड के खटीमा से जिला पीलीभीत तक फैले इसी शारदासागर डाम की सैर पर ले चलते हैं।
कुमाऊँ की पहाड़ियों से चल कर उत्तर प्रदेश के बड़े भूभाग को सिंचित करने वाली शारदा नहर के किनारे ही यह शारदा सागर बाँध है।
यह लम्बाई में लगभग 30किमी तक फैला है और इसकी चैड़ाई 5 किमी के लगभग है। यह जलाशय भूमि की सतह से नीचे है। इसलिए इसके फटने तथा कटने की सम्भावना बिकुल नही है।
खटीमा से नेपाल बार्डर की ओर जाने पर 12 किमी की दूरी पर यह प्रारम्भ हो जाता है। प्रतिवर्ष इस बाँध का मछली पकड़ने का ठेके की नीलामी करोड़ों रुपयों में होती है। इसके अरिक्ति इसमें से कई नहरें भी निकाली गयी हैं। जो कि खेती के सिंचन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अतः इसके किनारे पिकनिक मनाने का आनन्द ही अलग है।
दो वर्ष पूर्व घर में अतिथि आये हुए थे इसलिए हमने भी सोचा कि इसी के किनारे पिकनिक मनाइ जाये। घर से खाना पॅक किया और जा पहुँचे शारदा सगर डाम पर।
सबसे पहले शारदा सागर के नीचे ढलान वाले भू-भाग पर बनी चरवाहों की एक झोंपड़ी देखी तो उसने तो मन मोह ही लिया। ऐसी शीतल हवा तो घर के ए-सी व पंखे भी नही दे सकते। इसके बाद शारदा सागर का जायजा लिया।
अब कुछ थकान सी हो आई थी, भूख भी कस कर लगी थी अतः मैदान में ही चादर बिछा कर आराम से भोजन किया।
शारदा सागर की सीपेज से निकले स्वच्छ जल में महिलाओं को बर्तन सा करने में बड़ा आनन्द आया। वो जैसे ही जूठे बर्तन पानी में डुबोती वैसे ही सैकड़ों मछलियाँ बचा-खुचा खाना खाने के लिए लपक-लपक कर आ जाती थीं।
थोड़ी देर के लिए इसी मैदान में विश्राम किया और फिर से काफिला घर की ओर प्रस्थान कर गया।
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गुरुवार, 26 अप्रैल 2018
दोहे "कारा उम्र तमाम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बाबा बनकर कर रहे,
लोग अनैतिक काम।
इसीलिए वो भोगते,
कारा उम्र तमाम।।
सच्चाई छिपती
नहीं, लगे भले ही देर।
फँस जाते हैं जाल
में, दोषी सभी दिलेर।।
मन में कपट भरा
हुआ, होठों पर हरि-नाम।
उसका ही फल भोगता,
बापू आसाराम।।
मगर मीन का भेष धर,
करता गन्दा ताल।
सजा मौत की दीजिए,
उसको तो तत्काल।।
अनाचार की दे रहे,
जो साधू तालीम।
करते हैं बदनाम
वो, सचमुच राम-रहीम।।
भोली जनता का
करें, शील भंग जो सन्त।
बना सख्त कानून अब,
कर दो उनका अन्त।।
मत-मजहब के नाम पर, कर दो बन्द सवाल।
कभी न उगने दीजिए, नदियों में शैवाल।।
मत-मजहब के नाम पर, लड़वाना हो बन्द।
अपने-अपने धर्म
के, बने सभी पाबन्द।।
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बुधवार, 25 अप्रैल 2018
दोहे "किसे सुनायें गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भावशून्य हो चित्त जब, तब ही सम्भव योग।।
जन्म दिवस पर बाँटते, इष्ट-मित्र उपहार।
लेकिन घटते जा रहे, साल-महीने-वार।।
जिनके सूखे गात हैं, पीत हो गये पात।
उनको भी मधुमास में, मिल जाती सौगात।।
जीत-हार का खेल है, जीवन का संग्राम।
घटनाओं पर तो कभी, लगता नहीं विराम।।
मतलब में करते यहाँ, सभी लोग मनुहार।
सम्बन्धों में घट रहा, धीरे-धीरे प्यार।।
नहीं रहा वो समय अब, नहीं रहे वो मीत।
आपाधापी में यहाँ, किसे सुनायें गीत।।
बदल गये मौसम यहाँ, बदल गयी है रीत।
सरगम तो बदली नहीं, बदल गया संगीत।।
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मंगलवार, 24 अप्रैल 2018
दोहे "चलना सीधी चाल।" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जीवनपथ पर ओ मनुज, चलना सीधी चाल।
जीवनभर टिकता नहीं, फोकट का धन-माल।।
गण-गणना पर है टिकी, सब दोहों की डोर।।
छन्दों में करना नहीं, तुकबन्दी कमजोर।
चार दिनों की ज़िन्दगी, काहे का अभिमान।
धरा यहीं रह जायगा, धन के साथ गुमान।।
जिनका सरल सुभाव है, उनका होता मान।
लम्पट, क्रोधी-कुटिल का, नहीं काम का ज्ञान।।
धन के सब स्वामी बनो, मत कहलाओ दास।
जो बन जाते दास हैं, रहते वही उदास।।
कर्म बनाता भाग्य को, यह जीवन-आधार।
कर्तव्यों के साथ में, मिल जाता अधिकार।।
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सोमवार, 23 अप्रैल 2018
दोहे "पुस्तक दिन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अब कोई करता नहीं, पुस्तक से सम्वाद।
इसीलिए पुस्तक-दिवस, नहीं किसी को याद।।
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उपयोगी पुस्तक नहीं, बस्ते का है भार।
बच्चों को कैसे भला, होगा इनसे प्यार।।
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अभिरुचियाँ समझे बिना, पौध रहे हैं रोप।
नन्हे मन पर शान से, देते कुण्ठा थोप।।
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बालक की रुचियाँ समझ, देते नहीं सुझाव।
बेमतलब की पुस्तकें, भर देंगी उलझाव।।
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कुछ मन्त्री हैं देश में, स्नातक से भी न्यून।
कैसे हों लागू वहाँ, हितकारी कानून।।
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रविवार, 22 अप्रैल 2018
गीत "घर सब बनाना जानते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
वेदना के "रूप" को पहचानते हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
भावनाओं पर कड़ा पहरा रहा,
दुःख से नाता बड़ा गहरा रहा,
मीत इनको ज़िन्दग़ी का मानते हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
काल का तो चक्र चलता जा रहा है
वक़्त ऐसे ही निकलता जा रहा,
ख़ाक क्यों दरबार की हम छानते हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
शूल के ही साथ रहते फूल हैं,
एक दूजे के लिए अनुकूल हैं,
बैर काँटों से नहीं हम ठानते हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
“रूप” तो इक रोज़ ढल ही जायेगा,
आँच में शीशा पिघल ही जायेगा,
तीर खुद पर किसलिए हम तानते हैं।
धूप में घर सब बनाना जानते हैं।।
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शनिवार, 21 अप्रैल 2018
दोहे "पृथ्वी दिवस-बंजर हुई जमीन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
एक साल में एक दिन, धरती का त्यौहार।
कैसे धरती दिवस का, सपना हो साकार।१।
--
कंकरीट जबसे बना, जीवन का आधार।
धरती की तब से हुई, बड़ी करारी हार।२।
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पेड़ कट गये धरा के, बंजर हुई जमीन।
प्राणवायु घटने लगी, छाया हुई विलीन।३।
--
नैसर्गिक अनुभाव का, होने लगा अभाव।
दुनिया में होने लगे, मौसस में बदलाव।४।
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शस्य-श्यामला धरा को, किया प्रदूषित आज।
कुदरत से खिलवाड़ अब, करने लगा समाज।५।
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नकली सुमनों में नहीं, होता है मकरन्द।
कृत्रिमता में खोजता, मनुज आज आनन्द।६।
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जहर बेचकर लोग अब, लगे बढ़ाने कोष।
औरों के सिर मढ़ रहे, अपने सारे दोष।७।
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ओछे कर्मों से हुए, हम कितने मजबूर।
आज मजे से दूर हैं, कृषक और मजदूर।८।
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जबसे जंगल में बिछा, कंकरीट का जाल।
धरती पर आने लगे, चक्रवात-भूचाल।९।
--
अब तो मुझे बचाइए, धरती कहे पुकार।
पेड़ लगाकर कीजिए, धरती का शृंगार।१०।
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शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018
दोहे "बातों में है बात" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सभी तरह की निकलती, बातों में से बात।
बातें देतीं हैं बता, इंसानी औकात।।
--
माप नहीं सकते कभी, बातों का अनुपात।
रोके से रुकती नहीं, जब चलती हैं बात।।
--
जनसेवक हैं बाँटते, बातों में खैरात।
अच्छी लगती सभी को, चिकनी-चुपड़ी बात।।
--
नुक्कड़-नुक्कड़ पर जुड़ी, छोटी-बड़ी जमात।
ठलवे करते हैं जहाँ, बेमतलब की बात।।
--
बद से बदतर हो रहे, दुनिया के हालात।
लेकिन मुद्दों पर नहीं, होती कोई बात।।
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बादल नभ पर छा गये, दिन लगता है रात।
गरमी में बरसात की, लोग कर रहे बात।।
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कूड़े-करकट से भरे, नगर और देहात।
मगर दिखावे के लिए, होती सुथरी बात।।
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भूल गये हैं लोग अब, कॉपी-कलम-दवात।
करते हैं सब आजकल, कम्प्यूटर की बात।।
--
जीवन के पर्याय हैं, झगड़े-झंझावात।
बैठ आमने-सामने, सुलझाओ सब बात।।
--
बातों से मिलती नहीं, हमको कभी निजात।
कहिए मन की बात अब, बातों में है बात।।
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गुरुवार, 19 अप्रैल 2018
गीत "गुलमोहर! फिर भी हँसते जाते हो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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