सारा जग वन्दन करे, खग करते हैं शोर।
अँधियारे को चीर कर, जब आती है भोर।।
देखा जब से आपको, छोड़ा पूजा-जाप।
नहीं जानता पुण्य है, या फिर होगा पाप।।
पूरे नहीं किये कभी, जनता के अरमान।
फिर भी बहुमत कह रहा, शासक बहुत महान।।
बोतल बदली पेय की, बदल न पाया माल।
कोई भी शासक बने, जनता तो बेहाल।।
इन्द्र देवता आपसे, बस इतनी अरदास।
उतना पानी दीजिए, जितनी जग को प्यास।।
बारिश लाती हर्ष को, देती कहीं विषाद।
नदिया तट पर सोचता, नौका लिए निषाद।।
सौ-सौ बार विचारिए, क्या होता है मित्र।
खूब जाँचिए-परखिए, उसका चित्त-चरित्र।। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शनिवार, 30 जून 2018
दोहे "छोड़ा पूजा-जाप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शुक्रवार, 29 जून 2018
ग़ज़लियात-ए-रूप "पहली ग़ज़ल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मुझे तो छन्द और मुक्तक, बनाना भी नहीं आता।
सही मतला, सही मक़्ता, लगाना भी नहीं आता।।
दिलों के बलबलों को मैं, भला अल्फ़ाज़ कैसे दूँ,
मुझे लफ्ज़ों का गुलदस्ता, सजाना भी नहीं आता।
सुहाने साज मुझको, प्यार से आवाज़ देते हैं,
मगर मजबूर हूँ, इनको बजाना भी नहीं आता।
भरा है प्यार का सागर, मैं कैसे जाम में ढालूँ,
भरी गागर से पानी, मुझको छलकाना नहीं आता।
महकता है-चहकता है, ये ग़ुलशन खिलखिलाता है,
मुझे क्यारी में जल की धार, टपकाना नहीं आता।
ढला जब “रूप” तो, कोई फिदा कैसे भला होगा,
मुखौटा माँज-धोकर, मुझको चमकाना नहीं आता।
|
‘ग़ज़लियात-ए-रूप’-चेहरा चमक उठा, दमक उठा है रूप भी’ (डॉ. सिद्धेश्वर सिंह)
“ग़ज़लियात-ए-रूप”
‘चेहरा चमक उठा, दमक उठा है रूप भी’
संसार की
समस्त काव्यविधाओं में ग़ज़ल का एक विशिष्ट स्थान है। अपनी उत्स भूमि से उर्वरा
लेकर यह काव्य रूप विभिन्न भाषाओं के साहित्य का एक ऐसा अहम अंग बन गया है जिसे ‘साधारण’ और ‘आम’ कहकर अनदेखा नहीं
किया जा सकता है। यदि हिन्दी साहित्य की बात करें तो हिन्दी ग़ज़ल अपने आप में एक
सुदृढ़ काव्यरूप बन चुका है जिसने अपने व्यक्तित्व से देश, काल, समाज की सच्चाइयों
से जनमानस को अत्यन्त प्रभावित किया है। हिन्दी के अधिकांश कवियों ने ग़ज़ल में
हाथ आजमाया है। जिसमें ‘रसा’ उपनाम से लिखनेवाले
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर निराला, शमशेर बहादुर सिंह, बलवीर सिंह रंग, दुष्यन्तकुमार, राजेश ऐरी, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञानप्रकाश विवेक, जहीर कुरैशी और अदम
गोंडवी जैसे नाम सदैव स्मरण किये जायेंगे।
मेरे समक्ष
ग़ज़लों की एक पांडुलिपि है-‘ग़ज़लियात-ए-रूप’। इसके रचयिता हैं
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’। इस पुस्तक का
प्रकाशनपूर्व पाठक होना मेरे लिए सुखकर है। किसी भी नई किताब का आगमन निश्चितरूप
से इस संसार को देखने के लिए एक नई खिड़की का खुलना होता है, क्योंकि कवि/लेखक की
निगाह वहाँ तक पहुँचती है जहाँ कि साधारणजन की सोच का संचरण भी प्रायः नहीं होता
है।
इस पुस्तक
में कवि ने अपनी सोच-समझ और संवेदना के विभिन्न आयामों को ग़ज़लों के माध्यम से
अपनी वाणी दी है साथ ही उसने नकली कवियों से भी सचेत रहने की हिदायत दी है जो कि
कविता के प्रति प्रतिब( नहीं हैं और न ही उन्हें छन्दशास्त्रा का ज्ञान है-
‘‘हुनर की जरूरत न सीरत
से मतलब
महज रूप से ही ग़ज़ल हो गयी क्या’’
‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ की ग़ज़लों से एक पाठक
के रूप में गुजरते हुए मुझे इस बात का बार-बार भान होता है कि ‘रूप’ के पास एक विपुल
जीवनानुभव है और चिकित्सा जैसे पेशे का सफल निर्वाह करते हुए, राजनीतिक सक्रियता
के बल पर उन्होंने एक दृष्टि अर्जित की है जिसका दर्शन यह पुस्तक सहज ही कराती
है।
हमारे
परिवेश के कार्यकलाप की विविधवर्णी छवियाँ इस संग्रह की ग़ज़लों में सहज ही देखी
जा सकती है-
‘‘यूँ अपनी इबादत का
दिखावा न कीजिए
ईमान भी तो लाइए अपने हुजूर पे’’
--
‘‘कहीं से कुछ उड़ा
करके, कहीं से कुछ चुरा करके
सुनाता जो तरन्नुम में, वही शायर कहाता है’’
--
‘‘सोने की चिड़िया
इसलिए कंगाल हो गयी
कुदरत की सल्तनत के इशारे बदल गये’’
प्रस्तुत
ग़ज़ल संग्रह अपनी भाषा के नये तेवर और विचार की वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति के कारण
हिन्दी साहित्य के पटल पर अपनी उपस्थिति का अहसास प्रभावपूर्ण तरीके से करायेगा
ऐसा मेरा विश्वास है।
अशेष शुभकामनाओं के साथ-
डॉ. सिद्धेश्वर सिंह
एसोशियेट प्रोफेसर (हिन्दी)
राजकीय महाविद्यालय, बनबसा (चम्पावत)
|
गुरुवार, 28 जून 2018
“ग़ज़लियात-ए-रूप” की भूमिका” (डॉ. राजविन्दर कौर)
“ग़ज़लियात-ए-रूप” की भूमिका”
क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
मैंने सोशल साइटों पर देखा है कि डॉ.
रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ जी ने अब तक अनेकों
पुस्तकों की भूमिकाएँ और समीक्षाएँ लिखी हैं और अब भी कई पुस्तकें समीक्षाएँ
लिखने के लिए उनके पास कतार में हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि एक बड़े साहित्यकार
की पुस्तक की भूमिका लिखने का मुझे अवसर मिला है।
सर्वप्रथम
मैं उनके प्रथम ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ के प्रकाशन के लिए
हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ। मयंक जी से मेरी प्रथम भेंट सितारगंज में
एक सम्मान समारोह में हुई थी।
मैं जब ‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ की भूमिका लिख रही
थी तो मेरे मन में ग़ालिब, मीर और निदा फाज़ली
का ख्याल आ रहा था। जिन्होंने आम आदमी की पीड़ा को अनुभव करते हुए अपनी कलम चलाई
थी। मुझे ग़ज़लकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ भी उन्हीं की श्रेणी
के लगे। ग़ज़ल में प्रेमी-प्रेमिका की बातचीत के अतिरिक्त समाज में जो घट रहा है
उसको भी अपनें शब्दों में ढालना होता है। जिसे ग़ज़लकार ने बाखूबी अपनी ग़ज़लों में
उतारा है।
उत्तरप्रदेश के बिजनौर जिले के दुष्यन्त कुमार
का नाम एक सिद्ध ग़ज़लकार के रूप में आदर के साथ लिया जाता है। यह संयोग ही कहा
जायेगा कि डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ भी मूलतः बिजनौर
जनपद के ही हैं। जिनकी शायरी में मुझे इंसानी ज़ज़्बात के सभी रंग नजर आये। प्रेम, मुहब्बत, बेचैनी, ख्वाहिश, माँ, रिश्ते-नाते, तीज-त्यौहार, दरवेश, शहर-गाँव, इंसानियत, संगीत, प्रकृति, बदलाव, सभ्यता आदि सभी
विषयों का समावेश मयंक जी ने अपने ग़ज़ल संग्रह में किया है।
उनकी
लेखनी में अनुभव के साथ-साथ जीवन की भावरूपी सच्चाइयाँ, अदब और ज़िन्दादिली
भी है। जब वह रिश्तों का जिक्र करते हैं तो उसके उतार-चढ़ाव और नज़ाकतों को भी
बयान करना नहीं भूलते।
प्रेम में सराबोर उनकी इस ग़ज़ल की बानगी देखिए-
‘‘नैन मटकाते हैं, इज़हार नहीं करते हैं
सिर हिलाते हैं वो इनकार नहीं करते हैं...’’
समाज के
नक़ाबी चेहरे का भण्डापफोड़ करते हुए एक गजल में वो लिखते हैं-
‘‘युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल
जाते हैं
नौका खेने वाले, खेवनहार बदल जाते
हैं।।
--
जप-तप, ध्यान-योग, केबल, टीवी, सीडी करते हैं
पुरुष और महिलाओं के संसार बदल जाते हैं
--
माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-बार बदल जाते हैं’’
सियासतदानों की झूठी हमदर्दी पर उनका यह अशआर देखिए-
‘‘सीमा पे अपने सैनिक
दिन-रात मर रहे हैं
कायर बने विधता करने कमाल निकले’’
मौजूदा
हालात को बयान करती हुई मजदूर शीर्षक से लिखी गयी उनकी ग़ज़ल का एक मतला और एक शेर
देखिए-
‘‘वो मजे में चूर हैं, बस इसलिए मग़रूर हैं
हम मजे से दूर हैं, बस इसलिए मजदूर हैं
--
आज भी बच्चे हमारे, बीनते कचरा यहाँ,
किन्तु उनके लाल, मस्ती के लिए मशहूर
हैं’’
‘दो जून की रोटी’ नामक गजल में
उन्होंने एक मजदूर की बेबसी को बयान करते हुए लिखा है-
‘‘जरूरत बढ़ गयीं इतनी, हुई है ज़िन्दगी खोटी
बहुत मुश्किल जुटाना है, यहाँ दो जून की रोटी
--
नहीं ईंधन मयस्सर है, हुई है गैस भी महँगी,
पकेगी किस तरह बोलो, यहाँ दो जून की रोटी’’
मयंक जी शब्दों के जादूगर हैं उन्होंने ग़ज़ल
पर ग़ज़ल लिखते हुए कहा है-
‘‘ज़ज़्बात के बिन, ग़ज़ल हो गयी क्या
बिना दिल के पिघले, ग़ज़ल हो गयी क्या
--
हुनर की जरूरत, न सीरत से मतलब
महज ‘रूप’ से ही, ग़ज़ल हो गयी क्या’’
ग़ज़ल में
हिन्दी-उर्दू की शब्दावली पर करारा प्रहार करते हुए लिखा है-
‘‘अपनी भाषा में हमने
लिखे शब्द जब
ख़ामियाँ वो हमारी गिनाने लगे
--
क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
इसको फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे’’
अपनी छोटी
बहर की ग़ज़ल में कश्मीर के हालात पर चिन्ता व्यक्त करते हुए ग़ज़लकार लिखता है-
‘‘छूट रहा अपराधी है
ये कैसी आजादी है
--
सिसक रही है केशर-क्यारी
शासक तो उन्मादी है’’
अन्त में
इतना ही कहना चाहूँगी कि ‘ग़ज़लियात-ए-रूप’ ग़ज़लसंग्रह को पढ़कर
मैंने अनुभव किया है कि ग़ज़लकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ ने भाषिक सौन्दर्य
के साथ ग़ज़ल की सभी विशेषताओं का संग-साथ लेकर जो निर्वहन किया है वह अत्यन्त
सराहनीय है।
मुझे पूरा
विश्वास है कि पाठक ‘ग़ज़िलयात-ए-रूप’ को अतीत के प्रतीकों
को वर्तमान परिपेक्ष्य में पढ़कर अवश्य लाभान्वित होंगे और यह मज़मुआ समीक्षकों की
दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा।
डॉ. राजविन्दर कौर
हिन्दी विभागाध्यक्ष, राजकीय महाविद्यालय
सितारगंज (उत्तराखण्ड)
|
बुधवार, 27 जून 2018
दोहे "गायब अब हल-बैल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दौलत पाने की
लगी, दुनिया भर में होड़।
नैतिकता को स्वार्थ में, लोग रहे अब छोड़।।
इंसानों के आज तो,
बड़े हो गये पेट।
मानवता का कर
रहे, मनुज स्वयं आखेट।।
भगवा चोला पहन
कर, सन्त बने शैतान।
अब खुद को कहने
लगे, पापी भी भगवान।।
कलियुग कल का युग
हुआ, निर्धन हैं मजबूर।
रोटी-रोजी के
लिए, भटक रहे मजदूर।।
पिघल रहे हैं ग्लेशियर, दरक रहे हैं शैल।
खेत-गाँव से हो
गये, गायब अब हल-बैल।।
अधिक उपज के लोभ
में, पागल हुआ किसान।
जहर छिड़कता खेत
में, नवयुग का इंसान।।
नहीं बची अब देश
में, कोई देशी चीज।
जान-बूझकर कृषक
अब, बोते संकर बीज।।
|
मंगलवार, 26 जून 2018
दोहे "मन को करो विरक्त" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सूरज आया गगन में, फैला धवल प्रकाश।
मूरख दीपक हाथ ले, खोज रहा उजियास।।
गले मिलें जब प्यार से, रामू और रसीद।
अपने प्यारे देश में, समझो तब ही ईद।।
अच्छी सूरत देखकर, मत होना अनुरक्त।
जग के मायाजाल से, मन को करो विरक्त।।
काली छतरी ओढ़ के, आते गोरे लोग।
बारिश में करते सभी, छाते का उपयोग।।
शाम हुई सूरज ढला, गयी धरा से धूप।
ज्यों-ज्यों बढ़ती है उमर, त्यों-त्यों ढलता रूप।। |
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