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शनिवार, 30 नवंबर 2019
शुक्रवार, 29 नवंबर 2019
दोहे "ठिठुर रहा है गात" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बादल नभ में छा गये, शुरू
हुई बरसात।
अन्धकार ऐसा हुआ, जैसे
श्यामल रात।।
अकस्मात सरदी बढ़ी, निकले
कम्बल-शाल।
पर्वत के भूभाग में, जीना
हुआ मुहाल।।
पर्वत पर दिनभर हुआ, खूब
आज हिमपात।
किट-किट बजते दाँत हैं, ठिठुर
रहा है गात।।
मैदानी भू-भाग में, ओलों
की बरसात।
तेज हवाएँ बाँटती, जाड़े
की सौगात।।
रात ढली सूरज उगा, खिला
सुबह का रूप।
सेंक रहे हैं लोग अब, बाहर
बैठे धूप।।
धूल-धुन्ध सब धुल गयी, निर्मल
है परिवेश।
सारे जग से अलग है, अपना
भारत देश।।
दूध नहीं अच्छा लगे, अच्छी
लगती चाय।
नया जमाना लिख रहा,
नये-नये अध्याय।।
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गुरुवार, 28 नवंबर 2019
कुण्डलियाँ "तिगड़ी की खिचड़ी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सत्ता पाने के लिए, छत्रप
आये पास।।
छत्रप आये पास मिलाकर सुर
में सुर को।
नये खिलाड़ी को सिखलाते
सारे गुर वो।।
कह मयंक कविराय, सुधारी
बाजी बिगड़ी।
देखें कब तक रहे साथ, दल-बल
की तिगड़ी।।
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कभी जुदायी हो जहाँ, कभी
जहाँ हो मेल।
होता है शह-मात का,
राजनीति का खेल।।
राजनीति का खेल खेलते
निपट अनाड़ी।
जो जीता वो ही कहलाता
बड़ा खिलाड़ी।।
कह मयंक कविराय सियासत है
दुखदायी।
कभी मिलन की घड़ी और है कभी
जुदायी।।
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बुधवार, 27 नवंबर 2019
दोहे "उद्धव की सरकार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
फड़नवीस सरकार की, बन्द
हो गयी राह।
असमंजस में हैं पड़े, मोदी-नड्डा-शाह।।
बाला साहब का हुआ, सपना अब
साकार।
राजनीति के खेल में, गयी
भा.ज.पा. हार।।
छल की नौका से भला, कौन
हुआ है पार।
जब आये मझधार में, टूट
गयी पतवार।।
तुरुप चाल अपनी चले, छत्रप
शरद पवार।
महाराष्ट्र में आ गयी, उद्धव
की सरकार।।
बीच धार में छोड़कर, भागे
अजित पवार।
सत्ता पाने के सभी, बन्द कर
दिये द्वार।।
दाँव सभी उलटे पड़े, पलट
गयी है चाल।
तीन दिनों के बाद में,
उजड़ गयी चौपाल।।
आगे-आगे देखिए, क्या होगा
यजमान।
बदल सका कोई नहीं, कुदरत
का फरमान।।
पहन लिया है शीश पर, शिव
सेना ने ताज।
हँसी-खेल मत समझना, शासन
की परवाज।।
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गीत "पंक से मैला हुआ है आवरण" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सभ्यता, शालीनता के गाँव में,
खो गया जाने कहाँ है आचरण? कर्णधारों की कुटिलता देखकर, देश का दूषित हुआ वातावरण।
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सुर हुए गायब, मृदुल शुभगान में,
गन्ध है अपमान की, सम्मान में,
आब खोता जा रहा अन्तःकरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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शब्द अपनी प्राञ्जलता खो रहा,
ह्रास अपनी वर्तनी का हो रहा,
रो रहा समृद्धशाली व्याकरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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लग रहे घट हैं भरे, पर रिक्त हैं,
लूटने में राज को, सब लिप्त हैं,
पंक से मैला हुआ है आवरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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मंगलवार, 26 नवंबर 2019
संस्मरण "हम पहाड़ी मनीहार हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सोमवार, 25 नवंबर 2019
दोहे "मन में पसरा मैल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जनसेवा के नाम पर, मन में पसरा मैल।
निर्धन श्रमिक-किसान तो, कोल्हू के हैं बैल।।
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छँटे हुए सब नगर के, बन बैठे गुणवान।
पत्रकारिता में बचे, कम ही अब विद्वान।।
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जो समाज की नजर में, कभी रहे बेकार।
वो अब अपने देश में, चला रहे अखबार।।
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पत्रकारिता में हुआ, गोल आज किरदार।
विज्ञापन के नाम पर, चमड़ी रहे उतार।।
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नाजायज जायज बना, करते रकम वसूल।
आय-आय के नाम पर, बिकते आज उसूल।।
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बैतरणी में नरक की, कोई नहीं अनाथ।
राजनीति की मीन पर, मगरमच्छ का हाथ।।
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छुटभइये हों या बड़े, सबकी है अब मौज।
बढ़ती जाती देश में, बाबाओं की फौज।।
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रविवार, 24 नवंबर 2019
गीत "कारा में सच्चाई बन्द है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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तन्त्र अब खटक रहा है।
सुदामा भटक रहा है।।
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कंस हो गये कृष्ण आज,
मक्कारी से चल रहा काज,
भक्षक बन बैठे यहाँ बाज,
महिलाओं की लुट रही लाज,
तन्त्र अब खटक रहा है।
सुदामा भटक रहा है।।
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जहाँ कमाई हो हराम की
लूट वहाँ है राम नाम की,
महफिल सजती सिर्फ जाम की
बोली लगती जहाँ चाम की,
तन्त्र अब खटक रहा है।
सुदामा भटक रहा है।।
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जहरीली बह रही गन्ध है,
जनता की आवाज मन्द है,
कारा में सच्चाई बन्द है,
गीतों में अब नहीं छन्द है,
तन्त्र अब खटक रहा है।
सुदामा भटक रहा है।।
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शनिवार, 23 नवंबर 2019
दोहे "अंकगणित के अंक" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सागर में रखना नहीं, किसी
जीव से बैर।
राम नाम के जाप से, पाहन
जाते तैर।।
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एक रात में गुम हुए, अंकगणित
के अंक।
आज वही राजा बने, कल तक
थे जो रंक।।
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कौन यहाँ खुद्दार है, और
कौन गद्दार।
लड्डू पाता है वही, जो
होता मक्कार।।
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राजनीति में आज भी, चलता
यही रिवाज।
जोड़-तोड़ जो कर सके, वो
ही पाता ताज।।
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हारे बल के सामने, पूजा-जप
अरदास।
उसकी होती भैंस है, लाठी जिसके
पास।।
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कल तक जो बैरी रहे, आज बन
गये मित्र।
अच्छे-अच्छों के यहाँ,
बिकते रोज चरित्र।।
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इस असार संसार में, सब दौलत
का खेल।
धनवानों के खेत में, फलती
धन की बेल।।
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दोहे "जनमानस लाचार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जगह-जगह पर हैं लगीं, लोगों की चौपाल।
सियासती रुख देखकर, होता बहुत मलाल।।
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सियासती दरवेश अब, नहीं रहे अनुकूल।
मजबूरी में भा रहे, नागफनी के फूल।।
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फूलों के बदले मिले, जनता को तो शूल।
नये ढंग से हो रहे, वादे ऊल-जुलूल।।
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राजनीति के आज तो, बदल गये हैं अर्थ।
उपयोगी वो बन गये, जो लगते थे व्यर्थ।।
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कैसे रक्खें सन्तुलन, थमता नहीं उबाल।
खाली मन शैतान का, करता बहुत बवाल।।
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भूखी जनता खा रही, भाषण लच्छेदार।
अब बहरी सरकार में, जनमानस लाचार।।
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