चैन-ओ-अमन, सुकून खोजता, मजहब की दूकानों में। -- चौकीदारों ने मालिक को, बन्धक आज बनाया है, मिथ्या आडम्बर से, भोली जनता को भरमाया है, धन के लिए समागम होते, सभागार-मैदानों में। -- पहले लूटा था गोरों ने, अब काले भी लूट रहे, धर्मभीरु भक्तों को, भगवाधारी जमकर लूट रहे, क्षमा-सरलता नहीं रही, इन इंसानी भगवानों में। -- झोली भरते हैं विदेश की, हम सस्ते के चक्कर में, टिकती नहीं विदेशी चीजें, गुणवत्ता की टक्कर में, नैतिकता नीलाम हो रही, परदेशी सामानों में। -- जितनी ऊँची दूकानें, उनमें फीके पकवान सजे, कंकड़-पत्थर भरे कुम्भ से, कैसे सुन्दर साज बजे, खोज रहे हैं लोग जायका, स्वादहीन पकवानों में। -- गंगा सूखी, यमुना सूखी, सरस सुमन भी सूख चले, ज्ञानभास्कर लुप्त हो गया, तम का वातावरण पले, ईश्वर-अल्लाह कैद हो गया, आलीशान मकानों में।। -- |
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रविवार, 4 अप्रैल 2021
गीत "इंसानी भगवानों में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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चौकीदारों ने मालिक को, बन्धक आज बनाया है,
जवाब देंहटाएंमिथ्या आडम्बर से, भोली जनता को भरमाया है,
धन के लिए समागम होते, सभागार-मैदानों में।
हमेशा की तरह एकदम खरी-खरी...
यथार्थ का चित्रण करती रचना...
साधुवाद आदरणीय 🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
गंगा सूखी, यमुना सूखी, सरस सुमन भी सूख चले,
जवाब देंहटाएंज्ञानभास्कर लुप्त हो गया, तम का वातावरण पले,
ईश्वर-अल्लाह कैद हो गया, आलीशान मकानों में
हमेशा की तरह समसामयिक मुद्दों पर प्रहार करती रचना.. आभार...
सीधी, सच्ची, दो टूक बात कहती है यह कविता ।
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 05-04 -2021 ) को 'गिरना ज़रूरी नहीं,सोचें सभी' (चर्चा अंक-4027) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जितनी ऊँची दूकानें, उनमें फीके पकवान सजे,
जवाब देंहटाएंकंकड़-पत्थर भरे कुम्भ से, कैसे सुन्दर साज बजे,
खोज रहे हैं लोग जायका, स्वादहीन पकवानों में।
बेहतरीन रचना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसामाजिक विसंगतियों पर सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंहर पंक्ति में सुंदर संदेशो का समावेश कर दिया आपने,पूरी रचना सारगर्भित और यथार्थपूर्ण है,आपको कोटि कोटि नमन ।
जवाब देंहटाएंप्रणाम शास्त्री जी, बहुत खूब लिखा...झोली भरते हैं विदेश की, हम सस्ते के चक्कर में,
जवाब देंहटाएंटिकती नहीं विदेशी चीजें, गुणवत्ता की टक्कर में,
नैतिकता नीलाम हो रही, परदेशी सामानों में।...बहुत खूब
सारगर्भित तथ्य समेटे सार्थक गीत आदरणीय ।
जवाब देंहटाएं