आयी होली, आई होली।
रंग-बिरंगी आई होली।
मुन्नी आओ, चुन्नी आओ,
रंग भरी पिचकारी लाओ,
मिल-जुल कर खेलेंगे होली।
रंग-बिरंगी आई होली।।
मठरी खाओ, गुँजिया खाओ,
पीला-लाल गुलाल उड़ाओ,
मस्ती लेकर आई होली।
रंग-बिरंगी आई होली।।
रंगों की बौछार कहीं है,
ठण्डे जल की धार कहीं है,
भीग रही टोली की टोली।
रंग-बिरंगी आई होली।।
परसों विद्यालय जाना है,
होम-वर्क भी जँचवाना है,
मेहनत से पढ़ना हमजोली।
रंग-बिरंगी आई होली।।
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शनिवार, 28 फ़रवरी 2015
"बालगीत-आयी होली-आई होली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015
"होली गीत-महके है मन में फुहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आई बसन्त-बहार, चलो होली खेलेंगे!! रंगों का है त्यौहार, चलो होली खेलेंगे!! बागों में कुहु-कुहु बोले कोयलिया, धरती ने धारी है, धानी चुनरिया, पहने हैं फुलवा के हार, चलो होली खेलेंगे!! हाथों में खन-खन, खनके हैं चुड़ियाँ. पावों में छम-छम, छनके पैजनियाँ, चहके हैं सोलह सिंगार, चलो होली खेलेंगे!! कल-कल बहती है, नदिया की धारा. सजनी को लगता है साजन प्यारा, मुखड़े पे आया निखार, चलो होली खेलेंगे!! उड़ते अबीर-गुलाल भुवन में, सिन्दूरी-सपने पलते सुमन में, महके है मन में फुहार! चलो होली खेलेंगे!! |
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015
"होली आई है" (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बुधवार, 25 फ़रवरी 2015
“गीत मेरा:स्वर-अर्चना चावजी का” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आज सुनिए मेरा यह गीत! इसको मधुर स्वर में गाया है - अर्चना चावजी ने! मंजिलें पास खुद, चलके आती नही! अब जला लो मशालें, गली-गाँव में, रोशनी पास खुद, चलके आती नही। राह कितनी भले ही सरल हो मगर, मंजिलें पास खुद, चलके आती नही।। लक्ष्य छोटा हो, या हो बड़ा ही जटिल, चाहे राही हो सीधा, या हो कुछ कुटिल, चलना होगा स्वयं ही बढ़ा कर कदम- साधना पास खुद, चलके आती नही।। दो कदम तुम चलो, दो कदम वो चले, दूर हो जायेंगे, एक दिन फासले, स्वप्न बुनने से चलता नही काम है- जिन्दगी पास खुद, चलके आती नही।। ख्वाब जन्नत के, नाहक सजाता है क्यों, ढोल मनमाने , नाहक बजाता है क्यों , चाह मिलती हैं, मर जाने के बाद ही- बन्दगी पास खुद, चलके आती नही।। |
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015
"चन्दा देता है विश्राम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सूरज में चाहे कितने ही, सुख के
भरे उजाले हों।
लेकिन वो चन्दा जैसी, शीतलता
नहीं दिखायेगा।
अन्तर के अनुभावों में, कोमलता
नहीं चगायेगा।।
सूरज में है तपन, चाँद
में ठण्डक चन्दन जैसी है।
प्रेम-प्रीत के सम्वादों की, गुंजन-वन्दन
जैसी है।।
सूरज छा जाने पर पक्षी, नीड़
छोड़ उड़ जाते हैं।
चन्दा के आने पर, फिर
अपने घर वापिस आते हैं।।
सूरज सिर्फ काम देता है, चन्दा
देता है विश्राम।
निशा-काल में तन-मन को, मिल
जाता है पूरा आराम।।
निशाकाल में शशि को, सब ही
प्यार दिया करते हैं।
मैं “मयंक” हूँ, मेरी सब मनुहार
किया करते हैं।।
|
सोमवार, 23 फ़रवरी 2015
"इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रविवार, 22 फ़रवरी 2015
"फिर से बालक मुझे बना दो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बच्चों का संसार निराला।।
बचपन सबसे होता अच्छा।
बच्चों का मन होता सच्चा।
पल में रूठें, पल में मानें।
बैर-भाव को ये क्या जानें।।
प्यारे-प्यारे सहज-सलोने।
बच्चे तो हैं स्वयं खिलौने।।
बच्चों से नारी है माता।
ममता से है माँ का नाता।।
बच्चों से है दुनियादारी।
बच्चों की महिमा है न्यारी।।
कोई बचपन को लौटा दो।
फिर से बालक मुझे बना दो।।
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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015
"चहक रहे हैं वन-उपवन में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गदराई पेड़ों की डाली
हमें सुहाती हैं कानन में।।
हम पंछी हैं रंग-बिरंगे,
चहक रहे हैं वन-उपवन में।।
पवन बसन्ती जब पर्वत से,
चलकर मैदानों तक आती।
सुरभित फूलों की सुगन्ध तब,
मन में नव उल्लास जगाती।
अपनी खग भाषा में तब हम,
गीत सुनाते हैं मधुबन में।
हम पंछी हैं रंग-बिरंगे,
चहक रहे हैं वन-उपवन में।।
इन्द्र धनुष जब नभ में उगता,
प्यारा बहुत नजारा होता।
धरा-धाम के पाप-ताप को,
घन जब पावन जल से धोता।
जल की बून्दें बहुत सुहाती,
पड़ती हैं जब घर-आँगन में।
हम पंछी हैं रंग-बिरंगे,
चहक रहे हैं वन-उपवन में।।
उदय-अस्त की बेला में हम,
देते हैं सन्देश अनोखा।
गान उसी का करते हम.
जो रखता है लेखा-जोखा।
चलता जिसकी कृपादृष्टि से,
समयचक्र सबके जीवन में।
हम पंछी हैं रंग-बिरंगे,
चहक रहे हैं वन-उपवन में।।
सुख से रहना अगर चाहते,
सच से कभी न आँखें मींचो।
जीवन की सुन्दर बगिया को,
नियमित होकर प्रतिदिन सींचो।
नित्य नियम से रोज सवेरे,
सूरज उगता नील गगन में।
हम पंछी हैं रंग-बिरंगे,
चहक रहे हैं वन-उपवन में।।
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शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015
"रूप कञ्चन कहीं है कहीं है हरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
धानी धरती ने पहना, नया घाघरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
पल्लवित हो रहा, पेड़-पौधों का तन,
हँस रहा है चमन, गा रहा है सुमन,
नूर ही नूर है, वादियों में भरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
देख मधुमास की यह बसन्ती छटा,
शुक सुनाने लगे, अपना सुर चटपटा,
पंछियों को मिला है सुखद आसरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
देश-परिवेश सारा महकने लगा,
टेसू अंगार बनकर दहकने लगा,
सात रंगों से सजने लगी है धरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
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गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015
“ग़ज़ल-रूप सुखनवर तलाश करता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
चराग़ लेके मुकद्दर तलाश करता हूँ
मैं कायरों में सिकन्दर तलाश करता हूँ
मिला नही कोई गम्भीर-धीर सा आक़ा
मैं सियासत में समन्दर तलाश करता हूँ
लगा लिए है मुखौटे शरीफजादों के
विदूषकों में कलन्दर तलाश करता हूँ
सजे हुए हैं महल मख़मली गलीचों से
रईसजादों में रहबर तलाश करता हूँ
मिला नहीं है मुझे आजतक कोई पत्थर
अन्धेरी रात में चकमक तलाश करता हूँ
पहन लिए है सभी ने लक़ब के दस्ताने
मैं इनमें “रूप” सुखनवर तलाश करता हूँ
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बुधवार, 18 फ़रवरी 2015
"ग़ज़ल-दिल्लगी समझते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दिल में जब भी च़राग जलते हैं।
संग-ए-दिल आँच में पिघलते हैं
बेक़रारी के खाद-पानी से,
कुछ तराने नये मचलते हैं।
पत्थरों के जिगर को छलनी कर,
नीर-निर्झर नदी में ढलते हैं।।
आह पर वाह-वाह! करते हैं,
जब भी हम करवटें बदलते हैं।
वो समझते हैं पीड़ को मस्ती,
नग़मग़ी राग जब निकलते हैं।
मनचलों की यही रवायत है
दिल लगी, दिल्लगी समझते हैं,
अपनी गर्दन झुका नहीं पाते,
“रूप” को देख
हाथ मलते हैं।
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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015
" 2400वीं पोस्ट" दोहे-महाशिवरात्रि (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
दर्शन करने के लिए,
लम्बी लगी कतार।१।
--
बेर-बेल के पत्र
ले, भक्त चले शिवधाम।
गूँज रहा है भुवन
में, शिव-शंकर का नाम।२।
--
काँवड़ लेकर आ गये,
नर औ’ नार अनेक।
पावन गंगा नीर से,
करने को अभिषेक।३।
--
जंगल में खिलने लगा,
सेमल और पलाश।
हर-हर, बम-बम नाद
से, गूँज रहा आकाश।४।
--
गेँहू बौराया हुआ,
सरसों करे किलोल।
सुर में सारे बोलते,
हर-हर, बम-बम बोल।५।
--
शिव जी की
त्रयोदशी, देती है सन्देश।
ग्राम-नगर का देश का,
साफ करो परिवेश।६।
--
देवों ने अमृत
पिया, नहीं मिला वो मान।
महादेव शिव बन गये,
विष का करके पान।७।
--
नर-वानर-सुर मानते,
जिनको सदा सुरेश।
विघ्नविनाशक के
पिता, जय हो देव महेश।८।
--
सच्चे मन से जो
करे, शिव-शंकर का ध्यान।
उसको ही मिलता सदा,
भोले का वरदान।९।
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