दिल में जब भी च़राग जलते हैं।
संग-ए-दिल आँच में पिघलते हैं
बेक़रारी के खाद-पानी से,
कुछ तराने नये मचलते हैं।
पत्थरों के जिगर को छलनी कर,
नीर-निर्झर नदी में ढलते हैं।।
आह पर वाह-वाह! करते हैं,
जब भी हम करवटें बदलते हैं।
वो समझते हैं पीड़ को मस्ती,
नग़मग़ी राग जब निकलते हैं।
मनचलों की यही रवायत है
दिल लगी, दिल्लगी समझते हैं,
अपनी गर्दन झुका नहीं पाते,
“रूप” को देख
हाथ मलते हैं।
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बुधवार, 18 फ़रवरी 2015
"ग़ज़ल-दिल्लगी समझते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत खूबसूरत ग़ज़ल शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19-02-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1894 पर दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत सुन्दर।ग़ज़ल शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंsundar gajal shashtri ji
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत गजल
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। सुंदर गज़ल।
जवाब देंहटाएं