धानी धरती ने पहना, नया घाघरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
पल्लवित हो रहा, पेड़-पौधों का तन,
हँस रहा है चमन, गा रहा है सुमन,
नूर ही नूर है, वादियों में भरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
देख मधुमास की यह बसन्ती छटा,
शुक सुनाने लगे, अपना सुर चटपटा,
पंछियों को मिला है सुखद आसरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
देश-परिवेश सारा महकने लगा,
टेसू अंगार बनकर दहकने लगा,
सात रंगों से सजने लगी है धरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
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शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015
"रूप कञ्चन कहीं है कहीं है हरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर रचना. धरती की हरीतिमा का मनोहारी चित्रण.
जवाब देंहटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंसुन्दर सजीव
जवाब देंहटाएंसुन्दर सजीव
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